बेटे का बदलता रंग

निष्ठूर जवानी ममता पर; जब हावी होती जाती है ।
तब लगता प्यारी सी मैया ; बूढी होती जाती है ।
लगता है वो दिन बिसर गए ;जब पालना छोटा होता था ।
निकल जान सी माँ की जातीं ;जब जब ललना रोता था ।
जिस उंगली को पकड़ सहारे से ;ललने का चलना होता था ।
आज वो ऊँगली  काँप रही ; उसे नहीं आधार सपोता का ।
जिसे खिला कर माँ  खुश होती ;जिसके दुःख पर भूकी सोती ।
स जालिम के चूल्हे क्यों ; ना सिक पाती अब माँ को रोटी।
जिस के लालन पालन में; माँ ने अपनी जी-जान लगाईं ।
उस जान को भारी लगती है क्यों ; दो रोटी की अब भरपाई ।
अपशब्द निकलते उस माँ को जो ;हर वक्त दुआएं देती है ।
लाल की इतना लाल हुआ अब ; ममता डाँणे  में सोती है ।
जिस आँगन में मैया का आँचल ;पुत्र-दुलार को फैला था ।
वो आँगन  करुणा में रोता देख 'नियति ' यह चित्रकथा ।
क्या हुआ कि भारतवर्ष को मैया ;माओं का हाल बिहाल हुआ ।
ससुराल से  मोह लगा तो फिर ; क्यों आज दूर ननिहाल हुआ ।
"जिस जान  से जान मिली हमको ;क्यों जान उसे अनजान किया ।
आज जो 'जान' मिली हमको ;उस 'जान' को जान का दान दिया ।"

                                                                    -परमानंद 

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