माँ तू बहुत याद आती है

जीवन के निर्मम पथ पे सरिता सी बहती जाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

जब मैं उदास होता हूँ !असफलताओं से निराश होता हूँ। 
तेरा हाथ मेरे सिर पर फिरता-सा लगता है। 
आँखो के सम्मुख तेरा चेहरा तिरता-सा लगता है। 
देख मेरी उदासी को तू यूँ रोती जाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

जब पढ़ते-पढ़ते मुझे नींद आ जाती थी। 

तू मधुर मंद सुर मे गाकर मुझे सुलाती थी। 
सुबह जगाकर मीठे पेड़े अपने हाथ खिलाती थी। 
जो चंद मजूरी को खोकर मेरे लिए लाती थी !
आज दूर हूँ तुझसे माँ, सफलता बैरन होती जाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

याद आते है वो जमाने। 
ईंट फेंकते-फेंकते तेरे हाथो के छील जाने। 
सीमेंट-मसाले मे तेरी अँगुलियाँ कट जाती है। 
याद करके उस छवि को हाय छाती फट जाती है। 
शाम को साग बनाते उन अंगुलियों में मिर्च चली जाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

आँख में तिनका जाने पर, कैसे तू फूँक लगाती थी। 
कैसे घबराती अंदर से, बार बार सहलाती थी। 
वो तेरे आँचल की गर्माहट जिसमें छुप के मैं रोता था। 
तेरे लाख मानने पर भी मैं तो चुप ना होता था। 
परमानंद रोया है जैसे तू सबको यहाँ रूलाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

कर्ज़ बहुत है ,मर्ज यही है। 
कोमल दिल की माँ तेरी जिंदगी का दर्द यही है। 
स्मृति मलिन करके माँ तेरी, ब्रेड-बटर मैं खाता हूँ। 
पानी से गीली बासी रोटी को तुम्हे नमक में खाते पाता हूँ। 
जब ब्रेड को वापस रख देता हूँ , लगता है तू आकर मुझे खिलाती है। 
नयन उदधि की गंगा-जमुना गालों से बहती जाती है। 
माँ तू बहुत याद आती है। 

माँ ! काश तू मेरी कविता पढ़ पाती। 
मेरी छोटी सी कृति पर तू कितनी खुश हो जाती। 
वैसे भी बिना खुशी के तूने , जीवन मे खुशी जताई है.
वंजर धरती पर तूने , कैसे फसले लहराई है। 
जीवन झोंक कर के श्रम मे, आज तू बूढ़ी होती जाती है.
तब तो माँ तू और भी याद आती है।

-परमानंद

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