विलाप क्यों

असफलताओं  से विक्षिप्त पुरुष ,किसका रोना रोता है। 
करमो मे जो जंग लग गए,क्या करुणा से उनको धोता है।
 खोल के आँखे देख ज़रा तू,है प्रश्न-दल से घिरा हुआ। 
तू ही चीख रहा तेरे अंदर,न सुन पाता! क्या बहरा हुआ?
बोए क्या तूने थे विचार के, उत्तम उपचारित बीज नए?
क्यों आशा मे है नव अंकुर की, दिन सात गए तुम सठ भए।
 हाँ ! कि उत्तर हाँ मे था ,और अंकुर अपनी थां पे था। 
तो बता मुझे ओ मलिन कर्म ! सींचा क्या उसको जाँ से था?
तू नही सिंचाई कर पाया पर, करूंणामय बादल को झरते देखा। 
हवा बसंती की लहरों को , फसलों मे भरते देखा। 
तू भूल गया जीवन के सुंदर , और रंगीन नज़ारो मे।
 तू भूल गया ,तू भटक गया , कलिओं की मस्त बहारो मे।
 तू गया तो था खेतों पर बसने , रक्षा करने निज फसल की।  
बड़ी देर भई ओ मनमौजी , बनी शिकार वो पशुदल की। 
अब बैठ अकेले सिर लटकाए , बर्बादी मे रोता है।
 "क्यो दर्द दिया मुझको ईश्वर",आज दुहाई देता है।
 देख उठा उपर सिर को , किसका हाथ रखा सिर पर। 
किसके आँसू ने सहलाया तुझको, तेरे कंधे पर गिर कर। 
हाँ देख! की ममता बरस रही, तेरी खुशियो को तरस रही।
 रोते देख के आज तुझे , अग्नि मे कैसे झुलस रही। 
अरे निर्दयी न तड़पा अब , अपने दुख मे अपनी माँ को।
 लग जा कर्म मे दृढ़ होकर , झोंक दे अब अपनी जाँ को।
 कर के निरंतर कर्म तू अपनी , तकदीरे खुद से लिख दे।
 "हुआ सफल अब खुश हूँ मैं" , -माँ को तू चिठीया लिख दे। 

-परमानंद

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