क्या जगपति का अभिशाप तुझे

सडको पे फिरती भोली करुणा के, दर्शन हो गए आज मुझे |
जग देख जरा, न पहचाना तो, लानत है संसार तुझे |
सूरज से तपती गलियों में जब, कोमल पंजे पड़ते हैं |
तब आह निकलती करुना की, रोम रोम रो पड़ते हैं |
चैत की धुप पड़े सर पे और, सींके गात में चुभती हैं |
छोटी से एडी तक श्रमजल, जीने की गाथा लिखती है |
क्यों झुलस रहा अग्नि में निशदिन, क्या जगपति का अभिशाप तुझे |
जग देख जरा, न पहचाना तो, लानत है संसार तुझे ||१||

मसाले का तशला सर पे रखकर, जब बालक ऊपर चढ़ता है |
अपराध हो गयी बाल मजूरी, राजा का फरमान है |
जब विद्यालय को जाते होंगे, "पिंकी", "प्रिंसेस" और "सरदार" |
ईटों की भी रूह कांपती, जीवन जीवन से लड़ता है |
ढाबे पे बर्तन धोता "कूरा", ऐसा ही एक उदाहरण है |
श्रम में बचपन को खोने का, न जाने कोनसा कारण है |
यह देख के आँखे भार आती हैं, है भारत पर अभिमान मुझे |
जग देख जरा, न पहचाना तो, लानत है संसार तुझे ||२||

राजा बेटे के अंग संवर गए, अब श्रम को तैयार है |
हाथ बटाता माँ पापा के, ये निर्धनता की मार है |
ऐ दुनिया ! मैंने जो देखा, क्या दीखता है आज तुझे |
जग देख जरा, न पहचाना तो, लानत है संसार तुझे ||३||

तब "कूरा" को क्या लगता होगा, देख के जीवन की झंकार |
"कूरा" ने क्या अपराध किया, जो उसका बचपन छीन लिया |
रंगा विधाता "पिंकी" का जीवन, तो क्यों "कूरा" को हीन किया |
उठ जाग की बालक बचपन में, बच्चे होने का अधिकार तुझे |
जग देख जरा, न पहचाना तो, लानत है संसार तुझे ||४||

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