जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो
नोट: बुंदेली वाक्य 'जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो' का हिदी अनुवाद है - 'बहुत ठण्ड है, सुबह होते ही घर बना लूँगी'
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रात का समय था। मौसम जाड़े का। घास के बिछौने ओस से गीले हो गए थे। पेड़ों की पत्तियाँ समेटी हुई संघनित जल-राशि को बड़ी कंजूसी से एक एक बूँद टपका रही थी। बाड़े में बंधी भैसें जुगाली कर रही थी। गेंगे, तोते, गौरइयाँ, कौए आदि पंछिओं ने चुप्पी साधी थी। बीच-बीच में उल्लू जरूर आवाज़ कर देता। बाड़े के पास ही छटपटाती कपकपाती एक लोमड़ी झाड़ियों में कुछ टटोलती सी तन ढकने का उपाय खोज रही थी। भैंसों के बाड़े में ही बूढ़ा हरिया खाट बिछाए दो-तीन कम्बल ताने सो रहा था। वह भैंसों की रक्षा के उद्देश्य से रोज बाड़े में ही सोता था। लोमड़ी की तो जैसे जान जा रही थी। उसे तन छुपाने को जगह न मिलती। दाँत कटकटाती जैसे कह रही है- "खो.... खो.... खो.. जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो" अंत में उसने आके हरिया की खाट के नीचे शरण ली। यहाँ कुछ ठीक था। इतने में झबरा कुत्ता भौंका, हरिया जागा, सिरहाने रखा बाँस का बेंत उठाया और दे मारा लोमड़ी के। वह भागी, हरिया गरियाता हुआ उसके पीछे भागा। कुछ ही देर में वह झाड़ियों में गायब हो गई। हरिया वापस सो गया। लोमड़ी की सारी रात जैसे तैसे इस आशा में कटी कि 'भ्याने घर बना लेहो'। सवेरा हुआ जाड़ा (ठंड) घटा, सूरज खिला और लोमड़ी के दुःख गायब। लाइफ चिल। पर यह क्या,फिर शाम हुई। अँधेरा और ठण्ड दोनों फैलने लगे। लोमड़ी को याद आया की उसने घर तो बनाया नहीं। इस रात भी वह किसी तरह मरते मरते बची। रात भर किटकिटाते दाँत और काँपता शरीर यही कह रहा था- "खो.... खो.... खो.. जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो" परन्तु दिन तो होना ही था जिसने फिर सब कुछ भुला दिया। और ऐसे ही लोमड़ी का जाड़ा कट गया। फिर जाड़े आये और गए पर लोमड़ी ने अपनी फितरत न छोड़ी।
ps: आज एग्जाम के बाद बचपन की ये कहानी याद आ गई।
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रात का समय था। मौसम जाड़े का। घास के बिछौने ओस से गीले हो गए थे। पेड़ों की पत्तियाँ समेटी हुई संघनित जल-राशि को बड़ी कंजूसी से एक एक बूँद टपका रही थी। बाड़े में बंधी भैसें जुगाली कर रही थी। गेंगे, तोते, गौरइयाँ, कौए आदि पंछिओं ने चुप्पी साधी थी। बीच-बीच में उल्लू जरूर आवाज़ कर देता। बाड़े के पास ही छटपटाती कपकपाती एक लोमड़ी झाड़ियों में कुछ टटोलती सी तन ढकने का उपाय खोज रही थी। भैंसों के बाड़े में ही बूढ़ा हरिया खाट बिछाए दो-तीन कम्बल ताने सो रहा था। वह भैंसों की रक्षा के उद्देश्य से रोज बाड़े में ही सोता था। लोमड़ी की तो जैसे जान जा रही थी। उसे तन छुपाने को जगह न मिलती। दाँत कटकटाती जैसे कह रही है- "खो.... खो.... खो.. जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो" अंत में उसने आके हरिया की खाट के नीचे शरण ली। यहाँ कुछ ठीक था। इतने में झबरा कुत्ता भौंका, हरिया जागा, सिरहाने रखा बाँस का बेंत उठाया और दे मारा लोमड़ी के। वह भागी, हरिया गरियाता हुआ उसके पीछे भागा। कुछ ही देर में वह झाड़ियों में गायब हो गई। हरिया वापस सो गया। लोमड़ी की सारी रात जैसे तैसे इस आशा में कटी कि 'भ्याने घर बना लेहो'। सवेरा हुआ जाड़ा (ठंड) घटा, सूरज खिला और लोमड़ी के दुःख गायब। लाइफ चिल। पर यह क्या,फिर शाम हुई। अँधेरा और ठण्ड दोनों फैलने लगे। लोमड़ी को याद आया की उसने घर तो बनाया नहीं। इस रात भी वह किसी तरह मरते मरते बची। रात भर किटकिटाते दाँत और काँपता शरीर यही कह रहा था- "खो.... खो.... खो.. जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो" परन्तु दिन तो होना ही था जिसने फिर सब कुछ भुला दिया। और ऐसे ही लोमड़ी का जाड़ा कट गया। फिर जाड़े आये और गए पर लोमड़ी ने अपनी फितरत न छोड़ी।
ps: आज एग्जाम के बाद बचपन की ये कहानी याद आ गई।
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