विरहिन की बरसात

ओ धरनी मोरी विरह की साथिन, आग करेजे में धधकी।
बारिश की पहली बुंदियन पे , लेत लपेटा दै भड़की। 
अब सखी दादुर बोलन लागै , पूछ पुछार की दै छिटकी।
प्रियतम नज़र नहीं कहूँ आवै , बैरन हवा घुसी खिड़की।  
शीतल पवन चले आरी-सी , बदरा गरजै  घात करे। 
ब की बार नहीं भींजूँगी , बूंदन-बूंदन तीर चले। 
तू तो धरनी जनम की विरहिन , तैने कैसे धीर धरो। 
मेरा विरह एक सावन का , तोकूँ सारो जनम धरो।
तुम्हरे पिया तुम्हारे सम्मुख , नाम मिलन को नाहिं लियो। 
मैं ही रुदन मचावन लागी , तुम तो शाश्वत मौन लियो। 
                                                                  

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