माँगा था घना कोहरा

ह्रदय इक टीस सी उठती रही। 
सुधि की रेख भी मिटती रही। 
वक्त से माँगा था घना कोहरा,
पौ फटी और धुंधी छटती रही। 
भरम से पोतना चाहा जो दर्पण,
शक्ल उसमे वही दिखती रही। 
बिना समझे शुतुरमुर्गा बना मैं,
गर्दन रेत में ही सदा धंसती रही। 
चलाई छुरी, कि कटे तेरा जादू,
पे साँसे ही मेरी कटती रही।

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