देख आया खंड बुंदेला

भूमिका : बुंदेलखंड उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित भारत का एक भौगोलिक क्षेत्र है। यह क्षेत्र भारत के सबसे पिछड़े हुए इलाकों में से एक है जहाँ मुख्य रूप से तीन समस्याएं हैं - गरीबी, सूखा और इन दोनों से उत्पन्न पलायन की समस्या। कविता में  बुंदेलखंड की मार्मिक स्थिति का वर्णन किया गया है।

विशेष : कविता को इस प्रकार छंद-बद्ध किया गया है कि पहली दो पंक्तियों और हर छंद की अंतिम दो पंक्तियों में २८ -२८ मात्राएँ है और बाकी प्रत्येक पंक्ति में ३० मात्राएँ हैं। कविता में सहजता से बुंदेली शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिनका शब्दार्थ नीचे संलग्न किया गया है।

अन्धकार की काली रजनी ,किंचित नहीं पुसानी।
देख आया खंड बुंदेला , दारुण दुख रजधानी।

जीवन की कटु कठिन शुष्कता, देखी गीली आँखों से।
मुक्त विहग अब धरन चूमते, नित-नित कटती पाँखों से।
तुम भी देखो निर्मम हुलिया, भारत माँ निज जननी का।
अंधकार तो ज़रा भाँप लो, निर्धनता की रजनी का।
जो देखा जो अनुभव कीन्हा, उसकी करूँ बखानी।
देख आया खंड बुंदेला, दारुण दुख रजधानी।

जर्जर-मैली-जीरन काया, मातु फिरत मजदूरी में।
कंडी बीनत मौड़ा-मोड़ी, डोलत ताप-ततूरी में।
प्यासी धरनी ने मुख खोला, चौपायों की खैर नहीं।
गली मुहल्ला सुने पड़ गए, किया पलायन भूम तजी।
ये जग-जीवन काठ पुतरिया, विधना रही नचानी।
देख आया खंड बुंदेला, दारुण दुख रजधानी।

करन मजूरी प्रीतम कढ़ गए,आस लगी उन आवन की।
हाय ! कचोटे उन बिन रजनी, और बदरिया सावन की।
हाड़-मांस की बची पुतरिया, प्राण गए परदेसन में।
कागा बैरी आस बढ़ावत, उड़ि-उड़ि आवै आँगन में।
चातक प्राण फंसे मरु माहि, बूंद मिले नहि पानी।
देख आया खंड बुंदेला, दारुण दुख रजधानी।
                                                 -परमानंद

पुसानी = पसंद आना , जीरन = जीर्ण , कंडी = पशुओं का सूखा गोबर जो ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है ,
मौड़ा-मोड़ी = बेटा-बेटी , ततूरी = तपी हुई धरती पर नंगे पाँव चलने से होने वाली जलन ,
काठ पुतरिया = कठ-पुतली , मजूरी = मजदूरी , कढ़ गए = निकल गए


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