करकट के भात
विशेष - कविता की प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ हैं।
ऐसे पाया हूँ भात अहो, जिसमें बहुतेरे स्वाद अहो।
उन भोग-भोज में क्षुधा शांति का, कैसा था उन्माद कहो ?
मड़राना पंकित माखिन का, या क्रंदन का था नाद कहो।
विरदा न कहो उन कौरों की, जलदी भख लो चुपचाप रहो।
कुछ स्वाद लगे है बलगम का, कुछ स्वानों के उत्सर्जन का।
सड़ने कीड़े पड़ जाने से, फेंके केलों के दर्जन का।
शायद मदिरा की उछरन का, सागंध अवतरण हुआ यहीं।
नासिक के युगल प्रपातों का, जल होठों में गुम गया कहीं।
घृणित ह्रदय उमड़ा करता पर, क्षुधा सदा मदमाती है।
ललक-ललक कचरे का भोजन, खाने मजबूर बनाती है।
दुत्कार तुझे उन झरनों की, और पंकित रंजित अंगों की।
दुत्कार नहीं उन असुअन की, दुत्कार तुझे इन छंदों की।
--परमानंद
ऐसे पाया हूँ भात अहो, जिसमें बहुतेरे स्वाद अहो।
उन भोग-भोज में क्षुधा शांति का, कैसा था उन्माद कहो ?
मड़राना पंकित माखिन का, या क्रंदन का था नाद कहो।
विरदा न कहो उन कौरों की, जलदी भख लो चुपचाप रहो।
कुछ स्वाद लगे है बलगम का, कुछ स्वानों के उत्सर्जन का।
सड़ने कीड़े पड़ जाने से, फेंके केलों के दर्जन का।
शायद मदिरा की उछरन का, सागंध अवतरण हुआ यहीं।
नासिक के युगल प्रपातों का, जल होठों में गुम गया कहीं।
घृणित ह्रदय उमड़ा करता पर, क्षुधा सदा मदमाती है।
ललक-ललक कचरे का भोजन, खाने मजबूर बनाती है।
दुत्कार तुझे उन झरनों की, और पंकित रंजित अंगों की।
दुत्कार नहीं उन असुअन की, दुत्कार तुझे इन छंदों की।
--परमानंद
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