काव्या
शीर्षक:- काव्या
छंद:- रुचिरा (मात्रिक)
छंद-संरचना :- १६,१४
१६,१४
अंत में एक गुरु |
मैं बैठा था हरी मेढ़ पर, हरि की महिमा मन में थी।
झूम रही गेहू की बाले ,हवा नाचती तन पे थी।
पास कहीं चिडियों की चै-चै ,काक-भगोड़े की चुप्पी।
दबे पाँव आ हवा बसंती ,देती जादू की झप्पी।
तभी अचानक पलास-पत्र से ,सुरमुर की आवाज उठी।
चौंक पेड़ को देखा मैंने ,इक सिहरन सी जाग उठी।
कुछ श्वेत पात के पीछे ,देखा हलकी सी गति में।
जिज्ञासा में कदम बढ़ाया ,बन संदेह पड़ा मति में।
धीरे धीरे भ्रम का पर्दा ,उठा आँख के ऊपर से।
श्वेताम्बर में सुन्दरता सी ,प्रकट भई उस झुरमुट से।
कुछ क्षण तक मैं रहा देखते ,कुदरत ज्यो देखा करता।
मन-मंदिर का मेरा मोहन राधा के दर्शन करता।
श्वेत फ्रॉक में मन ही मन में ,कल्पित थी कब से परियां।
दिव्य रूप ले आज खिल उठी ,पुष्पराज की पंखुड़ियाँ।
अमीय-सरिता सी वाणी से ,पानी शब्द झरा झर से |
गन्धर्व-लोक में खोइ गया ,भीगा-सा अमृत-रस से।
"प्यास लगी है हमें जोर से ,क्या कुछ पानी यहाँ मिले?
चला पम्प दो हमें ज़रा-सा ,ठडक उतरे शुष्क गले।"
स्तब्ध मौन हो उसे देखता ,आगे को दो कदम रखे।
फिर चुपचाप कूप तक पंहुचा ,बटन दबाया पंप चले।
पलास पत्र से झटपट मैंने ,एक कटोरी सुगढ़ रची।
दिया स्वच्छ जल उसमे भर कर ,जिससे उसकी प्यास बुझी।
पानी पीकर चुप्प चाप से ,चल दी अपनी वही गली।
अपलक हो मैं रहा देखता ,परी लोक की वह तितली।
देखत-देखत हो गयी ओझल ,क्षितिज बिंदु में समां गयी।
रजत रूप की निर्मल ठंडक , मेरी आँखे जमा गयी।
-परमानन्द
छंद:- रुचिरा (मात्रिक)
छंद-संरचना :- १६,१४
१६,१४
अंत में एक गुरु |
मैं बैठा था हरी मेढ़ पर, हरि की महिमा मन में थी।
झूम रही गेहू की बाले ,हवा नाचती तन पे थी।
पास कहीं चिडियों की चै-चै ,काक-भगोड़े की चुप्पी।
दबे पाँव आ हवा बसंती ,देती जादू की झप्पी।
तभी अचानक पलास-पत्र से ,सुरमुर की आवाज उठी।
चौंक पेड़ को देखा मैंने ,इक सिहरन सी जाग उठी।
कुछ श्वेत पात के पीछे ,देखा हलकी सी गति में।
जिज्ञासा में कदम बढ़ाया ,बन संदेह पड़ा मति में।
धीरे धीरे भ्रम का पर्दा ,उठा आँख के ऊपर से।
श्वेताम्बर में सुन्दरता सी ,प्रकट भई उस झुरमुट से।
कुछ क्षण तक मैं रहा देखते ,कुदरत ज्यो देखा करता।
मन-मंदिर का मेरा मोहन राधा के दर्शन करता।
श्वेत फ्रॉक में मन ही मन में ,कल्पित थी कब से परियां।
दिव्य रूप ले आज खिल उठी ,पुष्पराज की पंखुड़ियाँ।
अमीय-सरिता सी वाणी से ,पानी शब्द झरा झर से |
गन्धर्व-लोक में खोइ गया ,भीगा-सा अमृत-रस से।
"प्यास लगी है हमें जोर से ,क्या कुछ पानी यहाँ मिले?
चला पम्प दो हमें ज़रा-सा ,ठडक उतरे शुष्क गले।"
स्तब्ध मौन हो उसे देखता ,आगे को दो कदम रखे।
फिर चुपचाप कूप तक पंहुचा ,बटन दबाया पंप चले।
पलास पत्र से झटपट मैंने ,एक कटोरी सुगढ़ रची।
दिया स्वच्छ जल उसमे भर कर ,जिससे उसकी प्यास बुझी।
पानी पीकर चुप्प चाप से ,चल दी अपनी वही गली।
अपलक हो मैं रहा देखता ,परी लोक की वह तितली।
देखत-देखत हो गयी ओझल ,क्षितिज बिंदु में समां गयी।
रजत रूप की निर्मल ठंडक , मेरी आँखे जमा गयी।
-परमानन्द
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