याद वो गीत आते हैं
हटते ह्रदय को फिर फिर लुभाना सीख जाते हैं।
जिनसे आँख बचाता हूँ, दृश्य वो दीख जाते हैं।
आँगन में रखा जो वक्त का धूमिल-सा तख्ता,
ज़रा से रंग के छींटे नज़र इसमें भी आते हैं।
दिशा से मुक्त हो पतवार ले खेता थका सा,
हवा के मस्त झोंके फिर वहीं पे खींच लाते हैं।
तेरी ढिठाई से भी कितने ढीठ हैं 'परमा'
नहीं हैं गुनगुनाने जो, याद वो गीत आते हैं।
जिनसे आँख बचाता हूँ, दृश्य वो दीख जाते हैं।
आँगन में रखा जो वक्त का धूमिल-सा तख्ता,
ज़रा से रंग के छींटे नज़र इसमें भी आते हैं।
दिशा से मुक्त हो पतवार ले खेता थका सा,
हवा के मस्त झोंके फिर वहीं पे खींच लाते हैं।
तेरी ढिठाई से भी कितने ढीठ हैं 'परमा'
नहीं हैं गुनगुनाने जो, याद वो गीत आते हैं।
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