पिता

ग़म का सागर भर के अंदर , दुःख की रेख छिपाते हैं।
पलकों में बंध  नैन के आंसू , नैनो में अकुलाते हैं।
माँ के नैना पल में झरते , अपने दुःख दिखलाते हैं।
दुःख के भाव पिता का सुदृढ़ , बाँध तोड़ नहीं पाते हैं।
ओले पड़ते जब राहों में , पिता छत्र बन जाते हैं।
भव सागर में केवट बन के , सुत की नाव चलाते हैं।
धर के रूप पिता का जग में , निराकार प्रभु आते हैं।
मूरख 'परमा' तेरे हरि  भी , पितु को ईश बताते हैं

                                                     -परमानन्द

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