प्रेम का असली रूप विरह है

काग तेरी बोली में कैसी लय है।
लगता है किसी का आज आना तय है।
आग का तो जीवन धर्म जलना
क्रूर जल की शीत आभा एक भय है।
दिसि-ज्ञान बिन क्षितिज का लाल सूरज
कौन जाने अस्त होता या उदय है।
मिलन तो छल है रे विधाता का
प्रेम का असली रूप विरह है।
मजे हैं आँख के तपने में 'परमा'
दीदार हो जाना ही तो क्षय है।

                                          -परमानन्द 

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