जीवन की क्षण-भंगुरता
शीर्षक : जीवन की क्षण-भंगुरता
छंद : रुचिरा (मात्रिक)
छंद-संरचना : १६,१४
१६,१४
अंत में एक गुरू।
पवन जगाता अलख नज़ारे , चमक दामिनी अम्बर में।
खलबल खलबल सिन्धु हो रहा ,प्राण काल के है कर में।
नीर-समीर मिले तब ऐसे , बरसों बिछड़े यार मिले।
क्रुद्ध धुंध की आतुर बाहें , जीव अजीव अलिंगन ले।
निर्दय दानव सिन्धु हो रहा ,निगलनलगा जलयान को।
अब तक समझ नही पाया रे ,प्रभु के विप्लव-गान को।
चटख सुंदरी माधव गढ़ की , बन के मॉडल दंभ करे।
विलय हो रही जल में काया , रक्त उदधि में रंग भरे।
अतिवादी! आतंक तुम्हारा , था तुच्छ इस आतंक से।
सता रही तुझको भी दहशत , तू दर रहा इस जंग से।
रे व्यापारी! कित गया दंभ ? हो रहा सौदा जान का।
बलवंत सागर ठग रहा है , इह माल सब व्यापार का।
एक गत सबकी है हो गई , महज वेश्या ; या छात्र हो।
जीवन क्षण-भंगुर है'परमा' ,ज्यों कांच का इक पात्र हो।
छंद : रुचिरा (मात्रिक)
छंद-संरचना : १६,१४
१६,१४
अंत में एक गुरू।
पवन जगाता अलख नज़ारे , चमक दामिनी अम्बर में।
खलबल खलबल सिन्धु हो रहा ,प्राण काल के है कर में।
नीर-समीर मिले तब ऐसे , बरसों बिछड़े यार मिले।
क्रुद्ध धुंध की आतुर बाहें , जीव अजीव अलिंगन ले।
निर्दय दानव सिन्धु हो रहा ,निगलनलगा जलयान को।
अब तक समझ नही पाया रे ,प्रभु के विप्लव-गान को।
चटख सुंदरी माधव गढ़ की , बन के मॉडल दंभ करे।
विलय हो रही जल में काया , रक्त उदधि में रंग भरे।
अतिवादी! आतंक तुम्हारा , था तुच्छ इस आतंक से।
सता रही तुझको भी दहशत , तू दर रहा इस जंग से।
रे व्यापारी! कित गया दंभ ? हो रहा सौदा जान का।
बलवंत सागर ठग रहा है , इह माल सब व्यापार का।
एक गत सबकी है हो गई , महज वेश्या ; या छात्र हो।
जीवन क्षण-भंगुर है'परमा' ,ज्यों कांच का इक पात्र हो।
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