एक गाथा ऐसी भी
मुझे फिराया बहुत दिनों तक ,
नहीं लगती थी हाथ ।
मुझसे एक नहीं फसती थी ,
औरों से फंस जात ।
चंचल थी जल की भांति '
छनकीली सी देह ।
आज फसी है जाल में ,
अब नाही संदेह ।
ले चला में उसे चने के खेत में ,
जहां लगाईं घात ।
उज्जवल गाथा सुनो वहा की ,
मधुर चांदनी रात ।
ऐसा आज मसलू इसको ,
दिल की आग बुझाय ।
मखमल सी उस मेढ़ पे ,
इसे पटक दूँ जाय ।
पिंजरा खोला जाय खेत पर ,
इक दंभ भरे अहसास में ।
दै भागी वो चुहिया ,
गुम हो गई उस घास में ।
बाल नोंचू माथा ठोकूं ,
उस दिन पछताया खेत पे ।
' परमानन्द ' बहुत खीजा फिर ,
चुहिया से चेक-मेट पे ।
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