जवाहर नवोदय विद्यालय - टेढ़ी दृष्टि
जवाहर नवोदय विद्यालय (JNV) मेरे जैसे कई लोगो के लिए एक ऐसा नाम है जिसने उन्हें आकार दिया। तराश-तराश कर बड़ी सिद्धत से खाका खिंचा और उस पर नक्काशी की और कुम्हार-गड़ा की मिट्टी राख के साथ तपकर सबसे महेंगे बिकने वाले घड़ों में शोभायमान हुई। धूल-धंखड़ से तलाश के कुछ कणों को माणिक्यों जवाहरातों का रूप देने वाली संस्था नवोदय ही है। माटी से निर्मित नवोदय की इन कलाकृतियों में आप ताउम्र माटी की गंध पाएंगे - यही है इस कारीगर की उतकृष्ट कला।
इस तरह ह्रदय सुरम्य सुधियों में विलीन होता जाता है और महिमा-मंडन की अंतहीन सुरमाला हम नवोदयोत्पादों को लपेटती जाती है, लपेटती जाती है। मैं इस क्षेत्र में किसी भी बिंदु पर थकता नहीं। इसी बीच दब जाती हैं कुछ महत्वपूर्ण परंतु कड़वी सुधियाँ जिन्हें हम बाद में भी कभी नही देख पाते और अपने अनुजों के नेत्रों पर भी काली पट्टी जड़ देने के अनवरत प्रयास करते हैं।
१) पता नही क्यों, परंतु कुछ कुलीन अध्यापक/अध्यापिकाएँ नवोदय में पढ़ने वाले बच्चों को उनकी समाज के बच्चों के बराबर का दर्ज़ा नही दे पाते। कितने भी प्रतिभाशाली बच्चे हों, वो रहेंगे गवार और उपेक्षा के पात्र ही।
२) बच्चे विद्यालय की कोई भी कमी की ओर तर्जनी करके इंगित नही कर सकते। अगर आप ऐसा करते पाए गए तो आपको दंगाई घोषित कर दिया जायेगा। छोटी-छोटी बातों पर बाग़ी-घोषित कर के हर उठने वाले फन को कुचल दिया जाता है।
३) बालिकाओं पर तो बंदिशों और तानाशाही का पूरा पर्वत है (हो सकता है ये सिर्फ मेरे नवोदय की समस्या हो क्योंकि मेरा नवोदय बुन्देलखंड में है) कौन से कपडे पहनना है, एक हफ्ते में कितनी बार घर पे बात करनी है, मैदान में एक निर्धारित अतिसूक्ष्म क्षेत्र में ही खेलना है, क्या खेलना है क्या नहीं, परिसर में स्थित दुकान से सामान खरीदने कब जाना है और कितने के झुण्ड में (अब तो शायद दुकान जाने पे रोक लगी है), अपनी सर्वशक्तिमान शिक्षिकाओं के एक एक तानाशाहीक आदेशों का क्रियान्वयन कैसे करना है, इत्यादि इत्यादि ! और अगर किसी लड़के से बात करते पाए गए तो समझो खौलता हुआ सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ेगा।
४) और हाँ, मेस ! वाह क्या कहने ? आपको मुफ्त में भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है, भोजन पे टिपण्णी करने का अधिकार तो आप यहीं खो देते हो। न जाने क्यों प्रशासक लोग मेस-कार्यकर्ताओं को या आपूर्तिकर्ताओं को नहीं कह पाते कि हमारे बच्चों को अमुक दिन टमाटर या आलू सड़े मिले। अमुक दिन का पोहा खाने लायक बनाया ही नही था भाई। अमुक दिन रोटियों में कंकड़ दढ़दढा रहे थे। नही, कभी नही! सबको पता है कि बच्चे कैसा खाना खा रहे हैं फिर भी उन्हें वही खाने पे मजबूर किया जाता है, जैसा की हम पशुओं पे भी नही सोच सकते।बहुत सारे होस्टल्स का खाना बेकार होता है, पर इतना नहीं। अगर इससे भी बत्तर खाना किसी हॉस्टल में है तो आप उसे न के बराबर भुगतान कर रहे हो। नवोदय में तो मेस और विद्यालय की अन्य गतिविधियों के लिए प्रचुर मात्रा में सरकार धन खर्च करती है। उसे कोई मुफ्त न समझे।
ऐसी अनेक यादें हैं जहाँ अन्याय के बड़े क्रूर दर्शन हुए और होते भी हैं। अभी भी बाद तक ये हीनता की ग्रन्थिया पूर्णतया खुल नही पाती। बोलने से पहले सौ बार सोचता हूँ कि मैं सही बोल रहा न ! क्लास में प्रश्न पूछते समय मैं हज़ार बार सोचता था की प्रश्न किस तरह से संभलित वाणी और भाषा में पूंछना है क्योंकि एक बार जो दंगाई होने का ठप्पा लग गया तो समझो आपका पूरा कार्यकाल नरक हो गया। ऐसी यादों के तांते लग जाते हैं। सुरम्य नही, पर हैं तो ये भी यादें ही। इनको भी संजोकर रखा है हमने ठीक उन यादों की तरह जिन्हें सब लोग सबको बताते हैं।
इस तरह ह्रदय सुरम्य सुधियों में विलीन होता जाता है और महिमा-मंडन की अंतहीन सुरमाला हम नवोदयोत्पादों को लपेटती जाती है, लपेटती जाती है। मैं इस क्षेत्र में किसी भी बिंदु पर थकता नहीं। इसी बीच दब जाती हैं कुछ महत्वपूर्ण परंतु कड़वी सुधियाँ जिन्हें हम बाद में भी कभी नही देख पाते और अपने अनुजों के नेत्रों पर भी काली पट्टी जड़ देने के अनवरत प्रयास करते हैं।
१) पता नही क्यों, परंतु कुछ कुलीन अध्यापक/अध्यापिकाएँ नवोदय में पढ़ने वाले बच्चों को उनकी समाज के बच्चों के बराबर का दर्ज़ा नही दे पाते। कितने भी प्रतिभाशाली बच्चे हों, वो रहेंगे गवार और उपेक्षा के पात्र ही।
२) बच्चे विद्यालय की कोई भी कमी की ओर तर्जनी करके इंगित नही कर सकते। अगर आप ऐसा करते पाए गए तो आपको दंगाई घोषित कर दिया जायेगा। छोटी-छोटी बातों पर बाग़ी-घोषित कर के हर उठने वाले फन को कुचल दिया जाता है।
३) बालिकाओं पर तो बंदिशों और तानाशाही का पूरा पर्वत है (हो सकता है ये सिर्फ मेरे नवोदय की समस्या हो क्योंकि मेरा नवोदय बुन्देलखंड में है) कौन से कपडे पहनना है, एक हफ्ते में कितनी बार घर पे बात करनी है, मैदान में एक निर्धारित अतिसूक्ष्म क्षेत्र में ही खेलना है, क्या खेलना है क्या नहीं, परिसर में स्थित दुकान से सामान खरीदने कब जाना है और कितने के झुण्ड में (अब तो शायद दुकान जाने पे रोक लगी है), अपनी सर्वशक्तिमान शिक्षिकाओं के एक एक तानाशाहीक आदेशों का क्रियान्वयन कैसे करना है, इत्यादि इत्यादि ! और अगर किसी लड़के से बात करते पाए गए तो समझो खौलता हुआ सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ेगा।
४) और हाँ, मेस ! वाह क्या कहने ? आपको मुफ्त में भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है, भोजन पे टिपण्णी करने का अधिकार तो आप यहीं खो देते हो। न जाने क्यों प्रशासक लोग मेस-कार्यकर्ताओं को या आपूर्तिकर्ताओं को नहीं कह पाते कि हमारे बच्चों को अमुक दिन टमाटर या आलू सड़े मिले। अमुक दिन का पोहा खाने लायक बनाया ही नही था भाई। अमुक दिन रोटियों में कंकड़ दढ़दढा रहे थे। नही, कभी नही! सबको पता है कि बच्चे कैसा खाना खा रहे हैं फिर भी उन्हें वही खाने पे मजबूर किया जाता है, जैसा की हम पशुओं पे भी नही सोच सकते।बहुत सारे होस्टल्स का खाना बेकार होता है, पर इतना नहीं। अगर इससे भी बत्तर खाना किसी हॉस्टल में है तो आप उसे न के बराबर भुगतान कर रहे हो। नवोदय में तो मेस और विद्यालय की अन्य गतिविधियों के लिए प्रचुर मात्रा में सरकार धन खर्च करती है। उसे कोई मुफ्त न समझे।
ऐसी अनेक यादें हैं जहाँ अन्याय के बड़े क्रूर दर्शन हुए और होते भी हैं। अभी भी बाद तक ये हीनता की ग्रन्थिया पूर्णतया खुल नही पाती। बोलने से पहले सौ बार सोचता हूँ कि मैं सही बोल रहा न ! क्लास में प्रश्न पूछते समय मैं हज़ार बार सोचता था की प्रश्न किस तरह से संभलित वाणी और भाषा में पूंछना है क्योंकि एक बार जो दंगाई होने का ठप्पा लग गया तो समझो आपका पूरा कार्यकाल नरक हो गया। ऐसी यादों के तांते लग जाते हैं। सुरम्य नही, पर हैं तो ये भी यादें ही। इनको भी संजोकर रखा है हमने ठीक उन यादों की तरह जिन्हें सब लोग सबको बताते हैं।
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