सीता की याद: भाग २ (क्रोध)
सके जान न राम अचानक,
खेद क्रोध में बदल गया।
भीषणता धधकी-भभकी,
धर रौद्र काल ज्यों जल गया।
खिंचने लगी भृगुटि राम की,
रक्त उबाल लगा भरने।
भुजगेश बने, फुंफकार भरी,
जग त्राहि-त्राहि लगा करने।
दिनकर का जैसे रथ टूटा,
इक क्षण भर की ही देरी में।
ज्वालामुखी उद्विग्न हो उठे,
हुई रात प्रलय की भेरी में।
खौल रहे नदियाँ-निर्झर,
अब डोल रहा अंचल-अंचल।
पृथ्वी से नभ, नभ से भू तक,
बेचैन निरंतर दौड़ रहा जल।
पवन जगाता अलख नज़ारे,
चमक दामिनी अम्बर में।
खलबल-खलबल सिंधु हो रहा,
प्राण काल के हैं कर में।
नीर-समीर मिले तब ऐसे,
चपला से ज्यों वरुण मिले।
क्रुद्ध धुंध की आतुर बाहें,
जीव-अजीव अलिंगन ले।
चल पांश रहे यमदूतों के,
सृष्टि में हाहाकार मचा।
दुत्कार मचा, चीत्कार मचा,
कण-कण में तुमुल हज़ार मचा।
झंझा में क्षिति के सचर-अचर ,
कब भूमि पड़े कब गगन चढ़े।
बस गोचर होता आज वही,
जिसको उन्मुक्त हो काल गढ़े।
"खल छीन ले गया एक वक्त,
जर-मूर उसे तब मिटा दिया।
कितने नरभक्षी मायाधर को,
तब मार्ग मृत्यु का दिखा दिया।
भू कान खोल सुन ले मेरा,
न कोप संभाला जायेगा।
जो सीता न मुझको भेंटी,
अस्तित्व तेरा मिट जायेगा।"
देख नाश होता तेरा,
अचला क्यों इतना दम्भ करे?
विलय हो रही जल में काया,
रक्त उदधि में रंग भरे।
धधकी दावानल कानन में,
खग-विटप-जंतु सब राख हुए।
ब्रह्मा के सृष्टि के सपने,
इक पल में मानो खाक हुए।
जो शामक था वो आज जल रहा,
अब कौन बुझाने आएगा।
मनुज-देव जो निकट गया,
बस भस्म वहीं हो जायेगा।
धीरे से फिर ब्रह्मा जी ने,
शीतल जल सम वचन कहे।
दया दया प्रभु दया क्षमानिधि,
निज वैष्णव रूप का ध्यान रहे।
तुमने ही सब कुछ खा जाने को,
महाकाल को गाल दिए।
तुमने ही निश्चित किया वक्त,
जीने मरने के जंजाल किये।
आया जो उसका जाना भी,
निश्चित प्रभु तुमने कर डाला।
फिर किसके हेतु हे महाबाहु,
यह क्रोध रूप भीषण ज्वाला?
माया जो दासी है उसको,
क्यों आज मुक्त अधिकार दिया?
बंधक जो क्रोध प्रभु चिर का है,
उसको क्यों शीश सवार किया?
तुम-सीता चिरकल के साथी,
भिन्न नहीं रह सकते हो।
धरा-गगन की शक्ति नहीं,
कि छीन सिया को सकते हों।
कर्त्तव्य करो जो बचे हुए,
प्रभु राजकाज आदर्श धरो।
मानव को दे दो राह कर्म की,
सृष्टि पे उपकार करो।
साकेत धाम में फिर भेंटोगे,
क्यों ह्रदय तुम्हारा क्लांत हुआ?
ब्रह्मा के शीतल वचनों से,
तब क्रोध राम का शांत हुआ।
सतत......
खेद क्रोध में बदल गया।
भीषणता धधकी-भभकी,
धर रौद्र काल ज्यों जल गया।
खिंचने लगी भृगुटि राम की,
रक्त उबाल लगा भरने।
भुजगेश बने, फुंफकार भरी,
जग त्राहि-त्राहि लगा करने।
दिनकर का जैसे रथ टूटा,
इक क्षण भर की ही देरी में।
ज्वालामुखी उद्विग्न हो उठे,
हुई रात प्रलय की भेरी में।
खौल रहे नदियाँ-निर्झर,
अब डोल रहा अंचल-अंचल।
पृथ्वी से नभ, नभ से भू तक,
बेचैन निरंतर दौड़ रहा जल।
पवन जगाता अलख नज़ारे,
चमक दामिनी अम्बर में।
खलबल-खलबल सिंधु हो रहा,
प्राण काल के हैं कर में।
नीर-समीर मिले तब ऐसे,
चपला से ज्यों वरुण मिले।
क्रुद्ध धुंध की आतुर बाहें,
जीव-अजीव अलिंगन ले।
चल पांश रहे यमदूतों के,
सृष्टि में हाहाकार मचा।
दुत्कार मचा, चीत्कार मचा,
कण-कण में तुमुल हज़ार मचा।
झंझा में क्षिति के सचर-अचर ,
कब भूमि पड़े कब गगन चढ़े।
बस गोचर होता आज वही,
जिसको उन्मुक्त हो काल गढ़े।
"खल छीन ले गया एक वक्त,
जर-मूर उसे तब मिटा दिया।
कितने नरभक्षी मायाधर को,
तब मार्ग मृत्यु का दिखा दिया।
भू कान खोल सुन ले मेरा,
न कोप संभाला जायेगा।
जो सीता न मुझको भेंटी,
अस्तित्व तेरा मिट जायेगा।"
देख नाश होता तेरा,
अचला क्यों इतना दम्भ करे?
विलय हो रही जल में काया,
रक्त उदधि में रंग भरे।
धधकी दावानल कानन में,
खग-विटप-जंतु सब राख हुए।
ब्रह्मा के सृष्टि के सपने,
इक पल में मानो खाक हुए।
जो शामक था वो आज जल रहा,
अब कौन बुझाने आएगा।
मनुज-देव जो निकट गया,
बस भस्म वहीं हो जायेगा।
धीरे से फिर ब्रह्मा जी ने,
शीतल जल सम वचन कहे।
दया दया प्रभु दया क्षमानिधि,
निज वैष्णव रूप का ध्यान रहे।
तुमने ही सब कुछ खा जाने को,
महाकाल को गाल दिए।
तुमने ही निश्चित किया वक्त,
जीने मरने के जंजाल किये।
आया जो उसका जाना भी,
निश्चित प्रभु तुमने कर डाला।
फिर किसके हेतु हे महाबाहु,
यह क्रोध रूप भीषण ज्वाला?
माया जो दासी है उसको,
क्यों आज मुक्त अधिकार दिया?
बंधक जो क्रोध प्रभु चिर का है,
उसको क्यों शीश सवार किया?
तुम-सीता चिरकल के साथी,
भिन्न नहीं रह सकते हो।
धरा-गगन की शक्ति नहीं,
कि छीन सिया को सकते हों।
कर्त्तव्य करो जो बचे हुए,
प्रभु राजकाज आदर्श धरो।
मानव को दे दो राह कर्म की,
सृष्टि पे उपकार करो।
साकेत धाम में फिर भेंटोगे,
क्यों ह्रदय तुम्हारा क्लांत हुआ?
ब्रह्मा के शीतल वचनों से,
तब क्रोध राम का शांत हुआ।
सतत......
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