कल जिसे मैं खुद के साथ बिताया जाने वाला समय कहता आज था वो वैसा नही रहा

खुद के साथ बैठे काफी दिन हो गए। याद आता है- खेत की मेढ़, ढलता सूरज, चिड़ियों के झुण्ड, ढोर-डंगरों के चलने से मौसम में धुंध फैलाती धूल और घर की ओर ठेलता तेजी से पसरता हुआ अन्धकार। सिर पे टोकरी रखे दो तीन बकरियों को साथ लिए खेत से घर लौटती औरतें, बच्चे जिनके इर्द-गिर्द चिल्ल-पों मचाते बकरियों को तंग करते जैसे मजाक उड़ा रहे हों साँझ के गंभीर सन्नाटे का। ये वो समय होता था जब मैं खुद के साथ बैठा होता था। मन में न जाने कितने सवाल, कितनी दार्शनिक गुत्थियाँ किलोलें करती। सूरज भी साँझ के समय उताल में रहता है जैसे घर पास आ जाने पर छोटे-छोटे बच्चे उत्साह से दौड़कर किवाड़ भड़भड़ाते हुए दन्न से अंदर घुस जाते हैं। सूरज के छिपते ही कुछ मिनट का जो मरा मरा सा उजाला रहता है न। बस यही है वो वक़्त जब अंतर में छिपा दार्शनिक बाहर आने लगता है। इस गंभीरता में एक आनंद-सा आता है। मन जैसे धीरे-धीरे डूब रहा हो। जल से सांसो के द्वार जैसे बंद हो रहे हों। हर ओर से गति जैसे शांत हो कर विलीन हो रही हो। इस डूबने में तड़प नही उठती, न ही हैरान करती है उबरने की छटपटाहट। बस एक सनसनाता हुआ-सा संगीत बजता है, और तब मैं खुद के साथ होता हूँ।
आज इतने दिनों बाद कुछ मिलता-जुलता सा अनुभव रहा। सारा दिन रोज की तरह बकर में बीता। सांझ का वक्त। सन्नाटा। अँधेरा। सरसराता हुआ पंखा सन्नाटे को चीरने की नाकाम कोशिश कर रहा था। धीरे-धीरे ह्रदय गंभीर होता गया। मन डूबने लगा। इस बार छटपटाहट हुई, बेचैनी उभरी। मैंने बाहर आने को हाथ-पाँव मारे.....निरर्थक। किसी ने पैर पकड़ लिए हों जैसे...गहराइयों में खिंचता जा रहा था मैं। कुछ बोलू, जितना संवाद बिठाने की कोशिश करूँ उतनी बेचैनी हो और उतना ही दर्द। लेकिन इस बेचैनी में जैसे नशा हो। मन उबरने को तड़पे पर ह्रदय इसमें ही आनंद समझे। मैंने खुद को ढीला छोड़ दिया और सौंप दिया उस असीम, गंभीर सागर को। वो रहस्यमयी बंधन अपना भार लिए अब भी मेरे पैरों में था। जाने अनजाने कब से ये बंधन मुझे बांधे है। मैं बस इतना समझ पाया हूँ कि किसी ने मेरे पैर नहीं खींचे, मैं मेरे पैरों में पत्थर बाँध के ही कूदा था उस जलराशि में।  स्मृतियों का पत्थर और मोह का बंधन। कल जिसे मैं खुद के साथ बिताया जाने वाला समय कहता था आज वो वैसा नही रहा। 

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