सीता की याद: भाग १ (धिक्कार)

 मित्रो,
'सीता की याद' नाम से एक एक काव्य-श्रृंखला का आरम्भ कर रहा हूँ जिसकी पहली क़िस्त आपको समर्पित है। इस पूरी शृंखला की कविताएँ सीता के धरती में समां जाने के बाद राम की मनः स्थिति को अंकित करने का एक प्रयास है। कथावस्तु वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के 98वें  एवं 99वें दो सर्गों से ली गई है। अगली क़िस्त कब आएगी मुझे भी नहीं पता। ( :P ) कविताओं का आनंद लें और कृपया सुझाव देते रहें ताकि उत्तरोत्तर किस्तें उन्नत हो सकें।
धन्यवाद

जिसने पति के चरणों में,
               सर्वस्व निछावर कर डाला।

जिसने महलों की सेज छोड़,
               वन के कांटो में बिस्तर डाला।

जिसने झूठी अफ़वाहों के,
                    बोझ तले सब गवा दिया।

जिसने तप की घोर अग्नि में.
                   रोम-रोम निज जला दिया।

जिसने सोने की लंका को,
                       तुच्छ जान ठोकर मारी।

जिसने जग को सदा जिताया,
                     पग पग वह जग से हारी।

जिसने हर क्षण खुशियां बांटी,
                सुख कोश रहा उसका रीता।

पुरुषों की काली कटुक नजर में,
                             दागी है ऐसी सीता।

अपनी माता में खोट ढूंढ,
                  लोगों को लाज ना आती है।

नंगो की नागिन कुंठाएं,
                   ईश्वर को भी डस जाती है।

उस दिन सूरज ने देखा,
                         सीता सी देवी रोती है।

आंसू के जल से सींच-सींच,
                    करुणा का पौधा बोती है।

नारी, जो जीवन की धारा,
                   सम्मान तनिक ना पाती है।

वो पुरुषों की, कालचक्र की,
                        बंधक बन रह जाती है।

पग-पग जो करती त्याग सदा,
                   दुख सहती हंसती रोती है।

अस्तित्व हीनता में जीती,
                इक पल को धैर्य न खोती है।

भूमि-सुता की करुण वेदना,
                         और नहीं सह पाती है।

बेटी के क्रंदन से मां की,
                       तब छाती फट जाती है।

जीवन में इक पल भी सुख से,
                      जो आंख मूंद न पाती है।

आज सिसकती मां की ओली,
                        में चिर को सो जाती है।

हुआ पराजित शील वहाँ,
                       नर की झूठी प्रभुताई से। 

उस दिन नरता नर से हारी,
                        हारी ममता निठुराई से। 

पुलस्त्य, शक्ति, दुर्वासा, वामन,
                    गौतम, नारद, च्यवन जहाँ। 

कश्यप, गर्ग, शतानंद, सुप्रभ,
                     कात्यायन, विश्वामित्र जहाँ। 

उस महा ज्ञान की धरती पर, 
                      अन्धकार में चलना क्यों ?

पावनता का प्रमाण भला, 
                     होता अग्नि में जलना क्यों ?

जलकर भी क्या भला चैन,
                       आया उन ठेकेदारों को ?

कौल कराया फिर नारी से,
                         पावनता दिखलाने को।

गए कहाँ उपदेश ब्रह्म के,
              ऋषियों की सोच महान कहाँ ?

मानव के जीवन को पावन 
                      कहने का वो ज्ञान कहाँ ? 

कैसे आज्ञा दे दी राम को,
                    मुनियों ने सभा बुलाने को ?

क्या सोच एकत्रित हुए ऋषिगण,
                 शुचिता की शपथ दिलाने को।

ले गई धरनी गर्भ में अपने
                         भाग्य सिया के बड़े रहे।

ऋषिगण-पुरवासी-परवासी,
                        सब सुन्न हुए से खड़े रहे।

सब व्यर्थ रहीं चीखे-चिल्लाहट,
                          हृदयों में  अवसाद रहे।

तीनों लोको के मालिक भी,
                             धरे हाथ पर हाथ रहे।

विनती करते रहे राम पर,
                            काल नहीं सुनने वाला।

जाने वाला गया, रह गई,
                          करुणा की नीरव माला।

...सतत   

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