भेद-अभेद
यदि हम अपने परिवेश में नज़र दौड़ाएँ तो विभिन्न प्रकार के रंग, विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु, विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ, विभिन्न प्रकार के पदार्थ और ऐसी अनंत विभिन्न प्रकार की विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होतीं हैं। ब्रह्माण्ड विभिन्नताओं से भरा हुआ है। और यही कारण है कि यह इतना सुखद, रंगीन एवं मनोरम लगता है। विभिन्नताओं से रहित संसार की कल्पना कर पाना मुश्किल है। मैं आजतक ऐसी कल्पना नहीं कर पाया। अतः विभिन्नताएँ प्रकृति में अनिवार्य भी हैं और वांछित भी। एक इकाई का किसी दूसरी इकाई से भेद उन दोनों इकाइयों को पहचान देता है। यही पहचान हमारे वैयक्तिक अस्तित्व का स्तम्भ है। अगर हम पहचान खो देंगे तो हमारा वैयक्तिक अस्तित्व मिट जायेगा, और सटीक शब्दों में कहूँ तो 'अस्तित्व' का कोई अर्थ नहीं बचेगा। अतः व्यक्ति-व्यक्ति में भेद है इसीलिए उनका व्यक्तिगत अस्तित्व है। तो फिर यहाँ प्रश्न उठता है कि भेद मिटाने की बात क्यों कही जाती है ? क्यों कोई महापुरुष ऐसा कहता है कि रंग,जाति, लिंग आदि का भेद नहीं होना चाहिए ? समरूपता कि बात क्यों की जाती जिसे पाना असंभव-सा है ? पुरुष-स्त्री के शाश्वत भेदों को मानने और पालने वालों को अच्छा नहीं माना जाता। जातिगत भेद को सींचते रहने वालों को क्यों कई लोग आड़े हाथ लेने का प्रयास करते हैं ?
इस विषय पर थोड़ा सोचने पर विचार आता है कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि 'भेद' और 'भेदभाव' दो विभिन्न अवधारणाएँ हैं। इन्द्रियगोचर 'भेद' तो अपरिहार्य है और वाँछनीय भी परंतु 'भेदभाव' न तो आवश्यक है और न हि वाँछनीय। शरीर, मन, बुद्धि आदि स्तरों पर 'भेद' का अस्तित्व है और इसलिए हमारा अस्तित्व है क्योंकि हमारे अस्तित्व का भान कराने वाला उपक्रम यानि कि 'अहम्' इन सारे स्तरों से ऊपर है। जैसे-जैसे हम भेदों की भावनाओं को अस्वीकार करते जायेंगे यानि 'भेदभाव' मिटाते जायेंगे वैसे वैसे उत्तरोत्तर अस्तित्व के उच्च स्तरों को प्राप्त होते जायेंगे और जिस दिन 'अहम्' की रेखा को पार कर लिया उस दिन हमारा अस्तित्व मिट जायेगा और हम 'ज्ञानमय' हो जायेंगे; यही आध्यात्म है। यही वो अमूल्य उपहार है जो भारतीय सभ्यता ने विश्व को दिया है।
अतः हमें भेदों को मिटाने का प्रयास करने की वजाय भेदभाव मिटाने का प्रयास करना चाहिए। भेदभाव जिसके साथ होता है उसके लिए तो खतरनाक है ही परंतु उससे भी ज्यादा खतरनाक है उसके लिए जो भेदभाव करता है। इस सत्य को जानते हुए भी हम लोग अहंकार के वशीभूत होकर कई प्रकार के भेदभाव करते हैं। हमारे मानस में ये भेदभाव इस तरह से अंकित हो गए हैं कि कई बार यह कहते हुए भी कि ''मैं भेदभाव नहीं करता'', हम भेदभाव करते रहते हैं और सहते रहते हैं। दो विशिष्ट प्रकार के भेदभावों को मैंने बहुत निकट से देखा है जिनके बारे में बहुत कुछ कह सकता हूँ और कहूँगा भी; परन्तु धीरे-धीरे, समय के साथ। वो दो भेदभाव हैं - जातिवाद और लिंगभेद।
जातिगत भेदभाव भारत के अधिकतर भूभाग में अभी भी फल-फूल रहा है। और मैं तो कहूँगा की अब तो ये और भी खतरनाक होता जा रहा है क्योंकि अब यह संघर्ष के रूप में उभर रहा है। यही बात लिंगभेद के साथ भी है। समरसता संघर्ष और शक्ति केंद्र के परिवर्तित होने से नहीं चित्त के परिवर्तित होने से आएगी। समरसता बाहर नहीं अंदर आनी चाहिए; वही वांछित है। एक उदाहरण देता हूँ। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक कार्यक्रम चल रहा है, सामाजिक समरसता का। एक स्वयं-सेवक भारत के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले एक तथाकथित दलित युवक से कहता है- "देखिये संघ का केंद्र राष्ट्र है, हम राष्ट्र को बेहतर और बेहतर बनाने की सोच रखते, राष्ट्र के गौरव की सोच रखते हैं। अतः जातिगत भेदभाव जो हमारी सभ्यता को घुन की तरह खाये जा रही है, प्रासंगिग नहीं है और हमें उसका त्याग कर देना चाहिए। इस विचार से हम सामाजिक समरसता के तौर पर आपको वर्षा के लिए होने वाले यज्ञ में आमंत्रित करते हैं पूर्ण अधिकारों के साथ। और हम आपका आवाहन भी करते हैं हमारे साथ जुड़ने का। " युवक को स्वयंसेवक की वो बात बहुत अच्छी लगी। उसने तुरंत प्रश्न किये - "क्या हमें यज्ञ-वेदी तक जाने का अधिकार होगा? क्या हम मंदिर में उतने ही अंदर तक जा सकते हैं जितने कि आप ? क्या हम में से कोई यदि पूजा विधि और मंत्राचार जनता है तो वह पंडित की जगह हवन करा सकता हैं?" स्वयंसेवक हक्का बक्का रह गया। होठों पर जीभ फेरते हुए उसने कुछ कहना चाहा की दलित युवक ने फिर प्रश्न किया - "क्या समरसता का तुम्हारा ये अधिकार रोटी और बेटी के आदान-प्रदान का अधिकार देता है ?" स्वयंसेवक थोड़ा सा तमतमाया फिर बोला - "देखिये भाईसाब ! आपको इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए परंतु रोटी-बेटी और हवन वाली बात न हो पायेगी। हंगामा तो आपको यज्ञ-वेदी तक ले जाने में भी होगा परंतु उसकी व्यवस्था मैं करा सकता हूँ लेकिन बाकी चीज़ें संभव नहीं।"
एक बार पुनः उक्त पैराग्राफ पर विचार करें तो हम समझ जायेंगे की किस तरह जातिगत भेदभाव हमारे समाज में भरा हुआ है कि इसको मिटाने का काम करने वाले भी अपने ज़ेहन से मिटाने की हिम्मत नहीं कर पाते। आज भी अगर आप किराये से कमरा लेने जाते हैं तो आपसे पूछते हैं कि आपकी जाति क्या है। और अछूत पाए जाने पर आपको कमरा नहीं दिया जाता। बहुत भटकते देखकर किसी सज्जन को दया आ जाती है और वो आपको किसी हरिजन छात्रावास या हरिजन बस्ती में जाने की सलाह दे देते हैं। इतना सब आज के समय में हो रहा है इस बात को बल देना चाहूँगा क्योंकि आज के युग के लोग इस बात को मान नहीं पाते। मैं ऐसी अनेक इससे भी भयंकर घटनाएं गिना सकता हूँ परंतु इस लेख में नहीं।
स्त्रियों के प्रति भेदभाव भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अपना क्रूर रूप लिए फल-फूल रहा है। बेटियों को पढ़ने के लिए बाहर भेजने में दिक्कत, बहुएँ-बेटियाँ किस प्रकार के कपडे पहनेंगी इस पर तानाशाही, घरों में बहनों से ज्यादा भाइयों को महत्त्व, विद्यालयों में छात्राओं पर बंदिशें, घरेलु हिंसाएँ इत्यादि इत्यादि। और यह सब असलियत है जिसे स्वीकारना पड़ेगा।
हमें भेदों को स्वीकार करते हुए भेदभाव को अस्वीकार करना है जबकि हो उल्टा रहा है। विशेष रूप से हिंदुओं के तो वेद, उपनिषद्, गीता आदि ग्रन्थ भी यही बात करते हैं और हम उनको नज़रअंदाज़ करके उलटा व्यवहार करते हैं। धर्म के ठेकेदार खुद धर्मग्रंथों की उचित शिक्षाओं को नहीं मानते और समाज के साथ साथ स्वयं का भी पतन करने में लगे हैं। यदि स्वयं का भला करना चाहते हो, सत्य का ज्ञान चाहते हो और आध्यात्मिकता की ओर बढ़ना चाहते हो तो उसका एक ही मंत्र मुझे दृष्टिगोचर होता है - 'विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए भेदभाव को अस्वीकार करते जाओ और एक दिन अहम् को लाँघ कर ज्ञानमय हो जाओगे'
इस विषय पर थोड़ा सोचने पर विचार आता है कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि 'भेद' और 'भेदभाव' दो विभिन्न अवधारणाएँ हैं। इन्द्रियगोचर 'भेद' तो अपरिहार्य है और वाँछनीय भी परंतु 'भेदभाव' न तो आवश्यक है और न हि वाँछनीय। शरीर, मन, बुद्धि आदि स्तरों पर 'भेद' का अस्तित्व है और इसलिए हमारा अस्तित्व है क्योंकि हमारे अस्तित्व का भान कराने वाला उपक्रम यानि कि 'अहम्' इन सारे स्तरों से ऊपर है। जैसे-जैसे हम भेदों की भावनाओं को अस्वीकार करते जायेंगे यानि 'भेदभाव' मिटाते जायेंगे वैसे वैसे उत्तरोत्तर अस्तित्व के उच्च स्तरों को प्राप्त होते जायेंगे और जिस दिन 'अहम्' की रेखा को पार कर लिया उस दिन हमारा अस्तित्व मिट जायेगा और हम 'ज्ञानमय' हो जायेंगे; यही आध्यात्म है। यही वो अमूल्य उपहार है जो भारतीय सभ्यता ने विश्व को दिया है।
अतः हमें भेदों को मिटाने का प्रयास करने की वजाय भेदभाव मिटाने का प्रयास करना चाहिए। भेदभाव जिसके साथ होता है उसके लिए तो खतरनाक है ही परंतु उससे भी ज्यादा खतरनाक है उसके लिए जो भेदभाव करता है। इस सत्य को जानते हुए भी हम लोग अहंकार के वशीभूत होकर कई प्रकार के भेदभाव करते हैं। हमारे मानस में ये भेदभाव इस तरह से अंकित हो गए हैं कि कई बार यह कहते हुए भी कि ''मैं भेदभाव नहीं करता'', हम भेदभाव करते रहते हैं और सहते रहते हैं। दो विशिष्ट प्रकार के भेदभावों को मैंने बहुत निकट से देखा है जिनके बारे में बहुत कुछ कह सकता हूँ और कहूँगा भी; परन्तु धीरे-धीरे, समय के साथ। वो दो भेदभाव हैं - जातिवाद और लिंगभेद।
जातिगत भेदभाव भारत के अधिकतर भूभाग में अभी भी फल-फूल रहा है। और मैं तो कहूँगा की अब तो ये और भी खतरनाक होता जा रहा है क्योंकि अब यह संघर्ष के रूप में उभर रहा है। यही बात लिंगभेद के साथ भी है। समरसता संघर्ष और शक्ति केंद्र के परिवर्तित होने से नहीं चित्त के परिवर्तित होने से आएगी। समरसता बाहर नहीं अंदर आनी चाहिए; वही वांछित है। एक उदाहरण देता हूँ। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक कार्यक्रम चल रहा है, सामाजिक समरसता का। एक स्वयं-सेवक भारत के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले एक तथाकथित दलित युवक से कहता है- "देखिये संघ का केंद्र राष्ट्र है, हम राष्ट्र को बेहतर और बेहतर बनाने की सोच रखते, राष्ट्र के गौरव की सोच रखते हैं। अतः जातिगत भेदभाव जो हमारी सभ्यता को घुन की तरह खाये जा रही है, प्रासंगिग नहीं है और हमें उसका त्याग कर देना चाहिए। इस विचार से हम सामाजिक समरसता के तौर पर आपको वर्षा के लिए होने वाले यज्ञ में आमंत्रित करते हैं पूर्ण अधिकारों के साथ। और हम आपका आवाहन भी करते हैं हमारे साथ जुड़ने का। " युवक को स्वयंसेवक की वो बात बहुत अच्छी लगी। उसने तुरंत प्रश्न किये - "क्या हमें यज्ञ-वेदी तक जाने का अधिकार होगा? क्या हम मंदिर में उतने ही अंदर तक जा सकते हैं जितने कि आप ? क्या हम में से कोई यदि पूजा विधि और मंत्राचार जनता है तो वह पंडित की जगह हवन करा सकता हैं?" स्वयंसेवक हक्का बक्का रह गया। होठों पर जीभ फेरते हुए उसने कुछ कहना चाहा की दलित युवक ने फिर प्रश्न किया - "क्या समरसता का तुम्हारा ये अधिकार रोटी और बेटी के आदान-प्रदान का अधिकार देता है ?" स्वयंसेवक थोड़ा सा तमतमाया फिर बोला - "देखिये भाईसाब ! आपको इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए परंतु रोटी-बेटी और हवन वाली बात न हो पायेगी। हंगामा तो आपको यज्ञ-वेदी तक ले जाने में भी होगा परंतु उसकी व्यवस्था मैं करा सकता हूँ लेकिन बाकी चीज़ें संभव नहीं।"
एक बार पुनः उक्त पैराग्राफ पर विचार करें तो हम समझ जायेंगे की किस तरह जातिगत भेदभाव हमारे समाज में भरा हुआ है कि इसको मिटाने का काम करने वाले भी अपने ज़ेहन से मिटाने की हिम्मत नहीं कर पाते। आज भी अगर आप किराये से कमरा लेने जाते हैं तो आपसे पूछते हैं कि आपकी जाति क्या है। और अछूत पाए जाने पर आपको कमरा नहीं दिया जाता। बहुत भटकते देखकर किसी सज्जन को दया आ जाती है और वो आपको किसी हरिजन छात्रावास या हरिजन बस्ती में जाने की सलाह दे देते हैं। इतना सब आज के समय में हो रहा है इस बात को बल देना चाहूँगा क्योंकि आज के युग के लोग इस बात को मान नहीं पाते। मैं ऐसी अनेक इससे भी भयंकर घटनाएं गिना सकता हूँ परंतु इस लेख में नहीं।
स्त्रियों के प्रति भेदभाव भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अपना क्रूर रूप लिए फल-फूल रहा है। बेटियों को पढ़ने के लिए बाहर भेजने में दिक्कत, बहुएँ-बेटियाँ किस प्रकार के कपडे पहनेंगी इस पर तानाशाही, घरों में बहनों से ज्यादा भाइयों को महत्त्व, विद्यालयों में छात्राओं पर बंदिशें, घरेलु हिंसाएँ इत्यादि इत्यादि। और यह सब असलियत है जिसे स्वीकारना पड़ेगा।
हमें भेदों को स्वीकार करते हुए भेदभाव को अस्वीकार करना है जबकि हो उल्टा रहा है। विशेष रूप से हिंदुओं के तो वेद, उपनिषद्, गीता आदि ग्रन्थ भी यही बात करते हैं और हम उनको नज़रअंदाज़ करके उलटा व्यवहार करते हैं। धर्म के ठेकेदार खुद धर्मग्रंथों की उचित शिक्षाओं को नहीं मानते और समाज के साथ साथ स्वयं का भी पतन करने में लगे हैं। यदि स्वयं का भला करना चाहते हो, सत्य का ज्ञान चाहते हो और आध्यात्मिकता की ओर बढ़ना चाहते हो तो उसका एक ही मंत्र मुझे दृष्टिगोचर होता है - 'विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए भेदभाव को अस्वीकार करते जाओ और एक दिन अहम् को लाँघ कर ज्ञानमय हो जाओगे'
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