सनातन में शूद्र
कम्प्लीट वर्क ऑफ स्वामी विवेकानंद से कुछ उद्धरण
1. CW-4
2. CW-7

3. CW-6

4. CW-6

आदि शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र भाष्य
ऊपर के उद्धरण पढ़कर अभी तक यह तो समझ या ही रहा है की स्वामी विवेकानंद जी ने आदि शंकराचार्य जी के साथ मतभेद प्रकट किए हैं और उनको 'ब्राह्मणवादी' कहा है। अतः यहाँ यह जानना आवश्यक हो जाता है कि शंकराचार्य जी ने ऐसी क्या बात कही और किस संदर्भ में कही कि स्वामी जी जिससे सहमत न हो पाए। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र भाष्य में न केवल जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था को माना है बल्कि उस आधार पर शूद्रों को वेदाध्ययन निषेध बताया है । ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, अध्याय-1, पाद-3, अपशूद्राधिकरणम्, सूत्र संख्या 34-38 :
34. शुगस्य तदनादरश्रवणात्तदाद्रवणात्सूच्यते हिउसकी (हंस की) अनादरपूर्ण वाणी सुनकर दुखित होकर उसे (जनश्रुति) को आते देख (रैक्व) ने उसे (शूद्र कहकर) संबोधित किया।
राजा जनश्रुति की कथा छान्दोग्य उपनिषद के चतुर्थ अध्याय मे आती है जिसे इस ब्लॉग पर पढ़ा जा सकता है। फिर भी संक्षेप मे यहाँ कह देता हूँ। दो हंस आकाश मे उड़ते हुए जा रहे थे । एक ने दूसरे से कहा - "देखो राजा जनश्रुति यहाँ उपस्थित हैं उनके तेज से प्रकाश फैल रहा है । सावधान! इस प्रकाश को स्पर्श मत करना अन्यथा भस्म हो जाओगे ।" ऐसा कथन सुनकर दूसरे हंस ने उत्तर दिया - "कौन है ये ? तुम्हारी बातों से तो ऐसा लगता है जैसे ये गाड़ी वाले रैक्व हों ।" राजा जनश्रुति को हंस की ये बात सुनकर बड़ा दुख हुआ और गाड़ी वाले रैक्व के दर्शन की अभिलाषा जगी। वे रैक्व के पास गए जो एक गाड़ी के नीचे बैठे थे। राजा को लगा रैक्व को शायद कुछ धन की आवश्यकता होगी अतः वे उनके लिए उपहार स्वरूप कुछ गायें, एक हार और एक रथ ले गए। रैक्व से उन्होंने कहा - "ही महात्मन, ये भेंट स्वीकार करें और कृपया मुझे बताएं कि आप किस देव की आराधना करते हैं ?" ऐसा सुनते ही रैक्व बोले - "रे शूद्र! तेरा ये धन तू ही रख" अगले दिन राजा गाएं, हार और रथ के साथ अपनी बेटी भी उपहार मे लाए और रैक्व को उससे विवाह करके उसे स्वीकारने को कहा एवं उनसे दीक्षा देने का अनुरोध किया। उस राजकन्या के मुख को ही विद्याग्रहण का द्वार मानकर रैक्व ने स्वीकार कर लिया ।
अब यहाँ शंकराचार्य कहते हैं कि क्योंकि पहले रैक्व ने उन्हें शूद्र समझा इसलिए शिक्षा देने से मना कर दिया परंतु बाद मे उनके क्षत्रीय होने का ज्ञान होते ही मान गए। अतः यह उदाहरण सिद्ध करता है कि शूद्र को वेदज्ञान का अधिकार नहीं। दूसरा तर्क उन्होंने ये दिया कि तैत्तरिया संहिता में बोला गया है - "यज्ञेऽनवक्लृप्तः" अर्थात शूद्र को यज्ञ करने का अधिकार नहीं [तैत्तरिया संहिता, 8.1.1.6] क्योंकि उसे यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार नहीं।
यहाँ इस सूत्र कि व्याख्या में फिर शंकराचार्य कहते हैं कि यद्यपि उनके आचरण से रैक्व ने जनश्रुति को शूद्र कहा परंतु उनके जन्म से क्षत्रीय होने का ज्ञान होते ही उन्हे ज्ञान देने के लिए मान गए । अतः वेद ज्ञान के अधिकार के लिए जन्म से द्विज होना आवश्यक है ।
36. संस्कारपरामर्शात्तदभावाभिलापाच्च
मुण्डकोपनिषद (मु. उ. 3.2.10), छान्दोग्योपनिषद (छां. उ. 4 .4 .5 ), शतपथ ब्राह्मण (श. ब्रा. 11.5.3.13) से ज्ञात होता है कि गुरु शिष्य को शिक्षा देने से पहले सदा ही उसका उपनयन संस्कार करता है। क्योंकि शूद्र को उपनयन संस्कार निषेध है अतः उसे वेद विद्या भी निषेध है शंकराचार्य जी का ऐसा निष्कर्ष है।
37. तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्तेः
छान्दोग्योपनिषद (छां. उ. 4 .4 .3-5) में सत्यकाम में शूद्रत्व का अभाव सुनिश्चित करने के बाद ही गौतम ने उसका उपनयन संस्कार किया और अपना शिष्य बनाया। आदि शंकराचार्य जी ने



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