नवोदय की होली
जब-जब गूंजे इन कानों में ; होली के किलकारे । तब-तब जी उठते यादों के ; सुन्दर से गलियारे । उत्साहित हो बाहर आ जाते ; कर के झटपट नेत्र-निमीलन । सारे साथी खड़े ग्राउंड में ; हैप्पी होली रंग मिलन । चुपचाप खड़े हो मेस देखता ; नवोदय की होली-लीला । पांच सैकड़े लोग इकट्ठे ; तिस पर डी जे भड भड़कीला । अनंत ख़ुशी खिल उठी रंग की, चंद झडकियों पर ही । मौक़ा पाकर अजमा लेते , कुछ रंग लड़कियों पर भी । रंग-गुलाल से भूत बने ,कछु मंच पे नाच लगे करने । कछु दौड़े कछु पीछू धावै ,सबकी जेब लगे हरने । जेब-फाड़ आन्दोलन ' भैया ,न कौनो की जेब बचे । फिर पकर धरें गड्ढे माहीं ,कीचड़ से सुन्दर देह रचे । कछु 'स्कूल बिल्डिंग' को दौड़ पड़े, कछु जंगल की गैल धरी। साथ से सत्तर लगे ढुढैय्या, मिल जाबे तो खैर नहीं । गिरत पडत जात, भागत भगत जात । देखत न आन-ताव , शूलहु चुभत जात । ढूंढ़त खुर्राए बांकी, पंक से आपंक भये । पंक के खिलाड़ियन की, टीम अब बढ़त जात । याद है वो दहन होलिका ,जी भर नाचे खोये से । "कल छूट जायेगी स्वर्ग-धरा ये " फूट-फूट कर रोये थे...