फौजी
सर्ग १
ईश्वर- नमन
पहिले सुमरों परमेश्वर को ,देवी देवता लेव मनाय ।
कलम विराजो माँ सुर-देवी ,ज्ञान की स्याही दो फैलाय ।
झन-झन वीणा तान सुना दे ,सबदन में अब भाव रमा दे ।
निज बालक पे चितवन दारो ,नवरस से इह काव सजा दे ।
ज्ञानोसुर की महानिधि है जो ,तेरे मानस के सागर में ।
वो सागर से इक बुंदिया-सी ,जलनिधि दे दो मम गागर में ।
आ के माँ मेरे मन-मंदिर में,काव्य का अमृत आज फुहारों ।
कर दीजो सफल सुरीलो कारज ,शीश नवावत लाल तुम्हारो ।
कुण्डलिया
ग्राम "मढैया" सुख बसा ,उर्मिल नद के पार ।
जम्बू दीपे भरत खंडे ,आजादी के बाद ।
आजादी के बाद ,सब नीको चले कामा ।
हरे खेत झूमते , इ सुखद सुरीलो धामा ।
वामन क्षत्रीय वैश्य सब सुख से करते काम ।
एक झलकिया देख लो चलो मढैया ग्राम ।
सरसी-छंद
यही लोग के बीच में कछु ,रहते ऐसे लोग ।
सदियों से भोगते आये ,जीवन महा कठोर।
आज ऋण में गले से डूबे ,आजादी के बाद ।
इनसे पूछ लेव कैसा है ,आजादी का स्वाद ।
छंद-मुक्त
जानी मानी बहुत पुरानी , याद वही मडरानी ।
सुनत कहानी इक फौजी की ,अँखियन आवै पानी ।
कर्ज की मारी माँ दुखयारी ,करत मंजूरी घामन में ।
बाण अगन के सूरज छोड़े , माँ धरती के दामन में ।
टुकना में जीवन कमल सूख रहो ,कोमल देह सकुचानी -सी ।
वृक्ष-लता सब अनबस ठाणी ,अंक भरे खाँ अकुलानी सी ।
बादल की ममता भर आई ,प्रीत नयी गहरानी ।
रोई बदरिया भरी दुपरिया ,झर-झर बरसे पानी ।
चवपैया-छंद
दौर परी चीखै ,
चिल्लावे माँ ,
गोदी लाल उठाती ।
फिर वृक्ष तले लुक
जाती तिरिया ,
ठाणी दूध पिलाती ।
छंद-मुक्त
पानी से हो गयी सराबोर ,छिपने का नहीं ठिकाना ।
बदरा थम जा नन्ही जान को ,घर तक ले के जाना।
सर्द हवा न तीर चला री ! कौन गति अब होय ।
प्रान पखेरू उड़ जावेंगे ,हतिया लगिहे तोय ।
आँचर में लुकाये लरका को ,भींगी ठाणी पेड़ तले ।
दो महीना को बालक रोवे ,बरखा की जा धार चले ।
दौड़ पड़ी ऐसी बरखा में ,देखो जा हैरानी ।
भगत जात गली में तिरिया ,झर-झर बरसे पानी ।
पीछू कछु दीख रहो आवत ,लागै बैलागाड़ी सी ।
अरे हां ! मंटोले कक्का है ,दाबे पान सुपारी-सी ।
अरी बहु !तू कहाँ भींज रही ,लरका लेके राई भरो ।
अबही कछु हो जैहै लार्के मौसम दीखे बड़ो बुरो ।
मो से भूल भई कक्का जू ,लरका लेके दौर परी ।
ठिठुरत लल्ला रहा गोदी में ,व्याकुलता सी उमड़ पड़ी ।
ठीक है ठीक है जल्दी से अब बैठ जा बैलगाड़ी में ।
मार डार हौ तुम लरका'को , ऐसी खेती बाड़ी में ।
हांक के जल्दी जल्दी गाडी , तीनो पहुंचे गाँव में'।
भवसागर में उठता झंझा डगमग जीवें नाव में ।
आँचर में लुकाये लरका को ,भींगी ठाणी पेड़ तले ।
दो महीना को बालक रोवे ,बरखा की जा धार चले ।
दौड़ पड़ी ऐसी बरखा में ,देखो जा हैरानी ।
भगत जात गली में तिरिया ,झर-झर बरसे पानी ।
पीछू कछु दीख रहो आवत ,लागै बैलागाड़ी सी ।
अरे हां ! मंटोले कक्का है ,दाबे पान सुपारी-सी ।
अरी बहु !तू कहाँ भींज रही ,लरका लेके राई भरो ।
अबही कछु हो जैहै लार्के मौसम दीखे बड़ो बुरो ।
मो से भूल भई कक्का जू ,लरका लेके दौर परी ।
ठिठुरत लल्ला रहा गोदी में ,व्याकुलता सी उमड़ पड़ी ।
ठीक है ठीक है जल्दी से अब बैठ जा बैलगाड़ी में ।
मार डार हौ तुम लरका'को , ऐसी खेती बाड़ी में ।
हांक के जल्दी जल्दी गाडी , तीनो पहुंचे गाँव में'।
भवसागर में उठता झंझा डगमग जीवें नाव में ।
ककुभ छंद
नन्हे से 'कौसल' की माई ,
रमसिंघा की मिहिरीया ।
'स्यामबाई' नाम है जाको ,
बड़ी मेहनती तिरिया ।
छंद मुक्त
रामसिंघा - स्यामबाई दुई , थे खेतिहर व् मजबूर ।
दुई भैया तीन बहना उसकी ,और गरीबी का दस्तूर ।
तीन भाई तीनो बहनों में ,दो बीघा भर खेती ।
जो उगता सो कर्ज में जाता खाने को रहती ठेंगी ।
पेट काट के देते उनको ,फिर भी कर्जा बढ़ता ।
जितने थे वो भाग्य से अढ़ते ,भाग्य भी उतना अढ़ता ।
उनमे से कुछ खेती में बीधे ,कुछ करते मजदूरी ।
मजदूरी से जो कुछ मिलता ,भूंख मिटाते आधी अधूरी ।
भाइयो की तो हो गई शादी ,अब बहना स्यानी हो रही ।
उनकी डोली की चिंता भी ,तीनो भाइयो के मगज पड़ी ।
इसी सिलसिले में इक दिन ,रोटी-बाड़ी खाय ।
रमसिंघा ने तीनो भाइयो को , नीम तले बुलवाय ।
छोटा बोल देखो भैया ,दो हजार सेठ से लेके ।
तीनो बहनों में से जेठी को ,भिजवा देव पीया के ।
रमसिंघा बोल रे कैसे ? धरो तीस हजार को कर्जा ।
नहीं चुकेगा तो बीवी बच्चो से ,क्या बोलेंगे ? मर जा ?
इतने मंझलो दै बोलो ,पांच हजार ले आने ।
जब दिया ओखली में सिर ,तो मूसल से का डराने ।
रमसिंघा बोला देखो भैया ,जैसी सबकी राय ।
सोच समझ कर करना करनी ,ना पछतावे को रह जाये ।
मंझला बोला सुन लो भैया ,कर्जा लेके पांच हजार ।
बड़ी- मंजली दोई बहनन की ,घर से डोली देओ निकार ।
तय बात हुई वर ढूंढे गए ,फिर झटपट लगुन कराया ।
नेंग-चार सब ठीक से हो गए ,समय विदा का आया ।
दोहा
'परमा 'वृक्ष -कुटुंब की ,बेटी है हरियाल ।
पतझड़ बाद जो न रहे ,सूनो रूख बिहाल ।
कुण्डलिया
बहना याद सनेह की ,असुअन में न ढार ।
ले जाना इसको घरे ,आँखिन में सम्हार ।
आँखिन में सम्हार ,मोरी माने न माने ।
अमर रहे बस प्रेम छद्म बांकी ढह जाने ।
'परमा' कहे सब के ,हिरदे में ही रहना ।
जीवन में न छोड़ना ,प्रेम का दमन बहना ।
मानव-छंद
बहना यादे मैया की । रुठन और मनैया की ।
ले दफ़नाय तू अंतर्मन । गुड्डे-गुडियों का जीवन ।।१।।
नोंक-झोंक जो भावज से । सुख-समीर दुःख-पावक से ।
मधुकोष सुरंग सुधियों का । पुष्पित प्रसून खुशियों का ।।२।।
चौपाई
भावज नेह सु असुवन ढारी ।
समझा-बुझा ननद बैठारी ।
पल में हांक दई तब गारी ।
विदा भई दारिद सुकुमारी ।
सोरठा
जुर-मिल तीनो भाय ,करी विदा दुई बहिना ।
सुमरी शरद माय ,कछु भार घटा कंधे से ।।१।।
भैया ठाडे तीन ,साथ में स्यामाबाई ।
भीगे नयन मलीन ,दूर जात दुई बहना ।।२।।
भई ओझल आँखिन सु ,बरात की बैलगाड़ी ।
उड़ गई सुगंध चन्दन सु ,आभा उडी सोने की ।।३।।
bahut hi shandar or adwitiya rachanayen bhaii..... kahan se late hai ye nazar or shabdkosh... love it !!!
ReplyDeleteprotsahan ke liye dhanyawad mitra
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