त्रिदिवसीय ग्रामीण शिविर, झाबुआ - २०१६
मई के महीने की सुबह भी दोपहर की फील देती है। परन्तु नदिया के किनारे की शीतल हवा से राहत सी थी। नदी का पानी स्थिर-सा जिसमे कुछ बालक किलोले कर रहे थे। रेत ढोने वाले ट्रैक्टर ठकठकाते हुए माहौल की शांति को चीरते काम पे लगे हुए थे। मैं ७०-८० साल के एक बाबा के साथ माहीं नदी के किनारे बैठा था, हरेश नदी के जल में उतर चुके थे और पंकज उतरने की तैयारी में थे। हाथ में लिए हुए नमकीन के पैकेट को बाबा की ओर बढ़ाते हुए मैंने प्रश्न किया - "बाबा ये हलमा कब से हो रहा है झाबुआ में ?" बाबा ने माहीं की ओर देखा और एक हथेली पे नमकीन के कुछ दाने समेटते हुए बोले - "पुरखों के टेम से" मैंने फिर प्रश्न किया - "क्यों करते है लोग हलमा?" मेरा प्रश्न पूरा होता कि उससे पहले बाबा नमकीन की फाँक लगा चुके थे। बुढ़ापे के दांतों के बचे हुए अवशेषों से नमकीन के दानों को कुटुर-कुटुर करते हुए बोले - "धरम के लिए। अपने लिए करना करम है और सबके लिए करना धरम" मैं भौचक्का रह गया। ये धर्म-कर्म की वही परिभाषा थी जो महेश जी दिया करते हैं। यह था प्रेरणा का प्रसार, यह था ज्ञान का विकीर्णन,...