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जीवन की क्षण-भंगुरता

शीर्षक          : जीवन की क्षण-भंगुरता   छंद              : रुचिरा (मात्रिक) छंद-संरचना  : १६,१४                         १६,१४                         अंत में एक गुरू।   पवन जगाता अलख नज़ारे , चमक  दामिनी अम्बर में। खलबल खलबल सिन्धु हो रहा ,प्राण काल  के है कर में। नीर-समीर  मिले   तब  ऐसे , बरसों  बिछड़े  यार  मिले। क्रुद्ध  धुंध  की  आतुर  बाहें , जीव  अजीव  अलिंगन  ले। निर्दय दानव सिन्धु हो रहा ,निगलनलगा जलयान को। अब  तक  समझ नही पाया रे ,प्रभु के विप्लव-गान को। चटख  सुंदरी  माधव  गढ़ की , बन  के  मॉडल  दंभ करे। विलय  हो  रही  जल में काया , रक्त  उदधि  में रंग भरे। अतिवादी!  आतंक  तुम्हारा , था  तुच्छ इस आतंक से। सता ...