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जो यहाँ न समाते हैं

छंद : कवित्त  आते जो यहाँ हैं, नीचे तबके का दुख लिए, हिन्दू के विचार में, वो मोल नहीं पाते  हैं। भंजक बल फैलते हैं, एकता से खेलते हैं, उन्ही को वो खींचते, जो यहाँ न समाते हैं। खुद को जो हिन्दू कहें, निज में न माने इन्हे, ये जो रुख मोड़ दें तो, घोर गरियाते हैं।                                              -परमानंद  

पूत मेरा तारे संसार

कवित्त - भोर में नहाते, झट भोर उठ जाते जो वो, हुलस समाए मन, इसकूल जाते हैं। कूदते हैं फांदते हैं, गार सब रांदते हैं, कल की न जानते हैं, मौज वो उड़ाते हैं। श्रम में जो आंचते हैं, वर्णमाला बाँचते हैं, करम लिखे को पर, बाँच नहीं पाते हैं। चौपाई - सोलह साल उमरिया आई। लेकर तसला करो कमाई। करजा की हो गई भरमार। पूत मेरा तारे संसार।                                                                -परमानंद   हुलस = उल्लास / प्रसन्नता, इसकूल = स्कूल, गार रांदना = ऊधम करना, पूत = पुत्र