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बूढी आँखे

अंबर को तकती वे बूढी आँखे कहती है कथा निठुर नियति की  तब की, जब लाल पोतनी आसमान में, उषा चहक पोता करती . जब सावन में नन्ही बिटिया सी, बूंदे आँगन में नाचा करती . जब खेत पहन धानी पगड़ी, इठलाते थे इतराते थे . जब गन्ने के खेतो में छिप के, बाल मंडली घुस जाती थी . जब कूपों में पानी होता था , जब खाने को दाने होते थे , जब इन आखों के साथ अंग में, भी पुलक थिरका करती. जब सदा बसंती हृदयों में, प्रेम लहर उमड़ा करती. फिर आखें गीली हो जाती हैं; क्योंकि आधुनिक विकास की गर्मजोशी में बादलों के साथ ह्रदय भी सूख गए .