भय नहीं चिंघाड़ों का
तर्जनी उठा कर जो प्रलय के बोल घनेरे कहता है। सूचित कर दो उस कायर को रक्त यहाँ भी बहता है। शरम करो ये नमक हरामो, माटी भी शर्मिंदा है। चले काटने उसको जिसके, कोटिक बेटे जिन्दा हैं। सबर न तौलो तुम बन्दों का, मर्यादा में रहना रे। उछल पड़ा जो खून खौलता, फिर न आके कहना रे। अगणित गर्जन सुन रखे हैं, भय नहीं चिंघाड़ों का। मस्तक अविरल उठा रहेगा, हिम से भरे पहाड़ों का। भारत है ये तेरे घर का रात्रि भोज का भात नहीं। गीदड़ हो गीदड़ ही रहना, सिंहों-सी औकात नहीं। -परमानंद