Posts

Showing posts from February, 2016

भय नहीं चिंघाड़ों का

तर्जनी उठा कर जो प्रलय के बोल घनेरे कहता है। सूचित कर दो उस कायर को रक्त यहाँ भी बहता है। शरम करो ये नमक हरामो, माटी भी शर्मिंदा है। चले काटने उसको जिसके, कोटिक बेटे जिन्दा हैं। सबर न तौलो तुम बन्दों का, मर्यादा में रहना रे।  उछल पड़ा जो खून खौलता, फिर न आके कहना रे। अगणित गर्जन सुन रखे हैं, भय नहीं चिंघाड़ों का। मस्तक अविरल उठा रहेगा, हिम से भरे पहाड़ों का। भारत है ये तेरे घर का रात्रि भोज का भात नहीं। गीदड़ हो गीदड़ ही रहना, सिंहों-सी औकात नहीं। -परमानंद

करकट के भात

विशेष - कविता की प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ हैं। ऐसे पाया हूँ भात अहो, जिसमें बहुतेरे स्वाद अहो। उन भोग-भोज में क्षुधा शांति का, कैसा था उन्माद कहो ? मड़राना पंकित माखिन का, या क्रंदन का था नाद कहो। विरदा न कहो उन कौरों की, जलदी भख लो चुपचाप रहो। कुछ स्वाद लगे है बलगम का, कुछ स्वानों के उत्सर्जन का। सड़ने कीड़े पड़ जाने से, फेंके केलों के दर्जन का। शायद मदिरा की उछरन का, सागंध अवतरण हुआ यहीं। नासिक के युगल प्रपातों का, जल होठों में गुम गया कहीं। घृणित ह्रदय उमड़ा करता पर, क्षुधा सदा मदमाती है। ललक-ललक कचरे का भोजन, खाने मजबूर बनाती है। दुत्कार तुझे उन झरनों की, और पंकित रंजित अंगों की। दुत्कार नहीं उन असुअन की, दुत्कार तुझे इन छंदों की।                                                                       --परमानंद