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Showing posts from July, 2013

अजातशत्रु

        छंद-                 सरसी  छंद संरचना -  १६,११                             १६,११                            अंत में गुरु-लघु (sl )  मैं मृदुवाचक बना हुआ था ,अंत: कपट समाय | अजातशत्रु मैं खुद को समझू ,छाती दंभ छिपाय | श्याम सखा अन्दर  से बोला , काहे फूला जाय | क्रोध,मोह,आलस्य,दंभ-से,रिपु को भूला जाय ||1|| अजातशत्रु तू तभी बने जब ,क्रोध क्षमा बन जाय | नादानी के अपराध सहे ,खड़ा-खड़ा मुस्काय | अजातशत्रु तू तभी बनेगा ,मोह बने जब त्याग | वंचित को अपने हिस्से से ,सौंपेगा कुछ भाग ||2|| अजातशत्रु तू तभी बने जब ,आलस हो असहाय | किस्मत के अभिलेख भूलकर ,कर्म ध्वजा फहराय | मधुसूदन का कर्म-संदेसा ,जन-जन तक पहुचाय | वही निर्भय हो भाग्य रेख से ,रिपु-विहीन कहलाय ||3|| 'दंभ नहीं ' - इस दंभ में  खोय , दंभ करे तू घोर | प्रेम ...

स्वारथ की झांकी है

छंद: ताटंक  ओ   मनवा !  रिश्तेदारों  से ,दूर  रहें तो  प्यारे  हैं | साथ  गुंथने  से  दुःख  बढ़े ,अपने  भी कुप्यारे हैं | प्यार दुलार सबै नौटंकी ,मेल-मिलाप छलावा है | ये स्वारथ की सब झांकी  ,या मन का बहलावा है |

माया का जाल

छन्द: कुण्डलिया या माया का जाल है ,करे चुटीले घात। 'परमा' तुम मूरख भये ,फिर फिर फसने जात। फिर फिर फसने जात , मोह के फांस निराले। करे किसी से दूर , किसी को गले लगा ले। देख मान सनमान , तु फूला नहीं समाया। आँख सुबुधि की खोल , तज दे मोह या माया।