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Showing posts from March, 2016

जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो

नोट: बुंदेली वाक्य 'जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो' का हिदी अनुवाद है - 'बहुत ठण्ड है, सुबह होते ही घर बना लूँगी' __________________ रात का समय था। मौसम जाड़े का। घास के बिछौने ओस से गीले हो गए थे। पेड़ों की पत्तियाँ समेटी हुई संघनित जल-राशि को बड़ी कंजूसी से एक एक बूँद टपका रही थी। बाड़े में बंधी भैसें जुगाली कर रही थी। गेंगे, तोते, गौरइयाँ, कौए आदि पंछिओं ने चुप्पी साधी थी। बीच-बीच में उल्लू जरूर आवाज़ कर देता। बाड़े के पास ही छटपटाती कपकपाती एक लोमड़ी झाड़ियों में कुछ टटोलती सी तन ढकने का उपाय खोज रही थी। भैंसों के बाड़े में ही बूढ़ा हरिया खाट बिछाए दो-तीन कम्बल ताने सो रहा था। वह भैंसों की रक्षा के उद्देश्य से रोज बाड़े में ही सोता था। लोमड़ी की तो जैसे जान जा रही थी। उसे तन छुपाने को जगह न मिलती। दाँत कटकटाती जैसे कह रही है- "खो.... खो.... खो.. जाड़ो लगो, भ्याने घर बना लेहो" अंत में उसने आके हरिया की खाट के नीचे शरण ली। यहाँ कुछ ठीक था। इतने में झबरा कुत्ता भौंका, हरिया जागा, सिरहाने रखा बाँस का बेंत उठाया और दे मारा लोमड़ी के। वह भागी, हरिया गरियाता हुआ उसके पीछे भाग...

तुमसे ह्रदय हटाऊँ कैसे

मानस में उठती लहरों की, नीरस गाथा गाऊूँ कैसे। पनप रहे भोले अंकुर को कुचल के आगे जाऊँ कैसे। नेह लगा तुमसे वनिते ! इस बात को आज बताऊँ कैसे। रंग चढ़ा जिसमें गहरा, उस अंबर रंग चढ़ाऊँ कैसे। बिके हुए मन के मधुवन में, वंशी मधुर बजाऊँ कैसे। नजर हटाने तक वश मेरा, तुमसे ह्रदय हटाऊँ कैसे।                                                              -परमानंद मानस = मन, वनिते = एक लड़की के लिए सम्बोधन, अंबर = वस्त्र,