मेरा मन सावन का अंधा
मेरा मन सावन का अंधा। हरी-हरी दीखै हरि-सुध हरियाली ; कौनौ काम ना धंधा। हरि दीखै उन करमन माहि ; बोझ धरो जिन कंधा। हरी दीखै हर प्रेम-प्रणय मे ; रोशन भाव को चंदा। हरी घट-घट मे हरि पनघट में ; हरि भए पर्वत विंधा। हरि झरना में हरि नदिया में;हरि को वास है सागर बंधा। हरि ममता में हरि रखिया में ; हरि है पुष्प सुगंधा। रे मन! न तीरथ न धाम को जाना;न करना कोई चंदा। मन अपने को तीरथ कर ले ; भाव बने तब गंगा।