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Showing posts from October, 2012

मेरा मन सावन का अंधा

मेरा मन सावन का अंधा। हरी-हरी दीखै हरि-सुध हरियाली ; कौनौ  काम  ना धंधा। हरि  दीखै   उन    करमन माहि ; बोझ  धरो  जिन  कंधा। हरी   दीखै   हर   प्रेम-प्रणय   मे ; रोशन  भाव  को  चंदा। हरी  घट-घट  मे  हरि  पनघट में ; हरि  भए  पर्वत विंधा। हरि झरना में हरि नदिया में;हरि को वास है सागर बंधा।   हरि  ममता  में  हरि  रखिया   में ; हरि   है  पुष्प सुगंधा। रे मन! न तीरथ न धाम को जाना;न  करना  कोई  चंदा। मन  अपने  को  तीरथ  कर  ले ; भाव   बने   तब   गंगा।

उषा

अति सुंदर सुकुमार दुल्हनिया, तुम वार लाए हो ऋतुराज। यौवन के महाराज की पुत्री ,उषा नाम है जीवन साज़। हुआ है चंदा रत्न बेन्दी का ,नथ बन गई है विहग कतारें । काली लाल साडी मे सोभत, मंद आलोकित मौन सितारे।  था इत्र फुहारा सजनी मे, सजनी की चंचल सखियो ने।   पवन है लाया वही संदेशा , जो भेजा है कलियों  ने।    मेघ हो गए केश सुसज्जित, जा लुके लाल अंबर भीतर।  सकुचाती सी ठाडी द्वारे , अंजाना है पिया का घर।  तरु, लता  और भोरी भाभी ,हुलस  दुल्हनिया देखन लागी।   चहक उठी गौरय्या तरुणि, एक झलक को घर से भागी।  प्रथम चरण को चौक सज़ा है, उपवन की रंगोली से।  करत ठिठोली पुरा की सखिया ,नई भावज हमजोली से।  देखन दौड़ा बाल-प्रकाश , पाँव पड़ा पत्थर दमदार।  बिखर गई आभा चेहरे की , पड़ा धरन मे सौंपसार।  किया इशारा  भानु-पितामह , बात जमी सबके उर मे।   ले गई कुटुम्ब की नारी वधु को  , मान सहित अंत:पुर मे।

माँ तू बहुत याद आती है

जीवन के निर्मम पथ पे सरिता सी बहती जाती है।  माँ तू बहुत याद आती है।  जब मैं उदास होता हूँ ! असफलताओं से निराश होता हूँ।  तेरा हाथ मेरे सिर पर फिरता-सा लगता है।  आँखो के सम्मुख तेरा चेहरा तिरता-सा लगता है।  देख मेरी उदासी को तू यूँ रोती जाती है।  माँ तू बहुत याद आती है।  जब पढ़ते-पढ़ते मुझे नींद आ जाती थी।  तू मधुर मंद सुर मे गाकर मुझे सुलाती थी।  सुबह जगाकर मीठे पेड़े अपने हाथ खिलाती थी।  जो चंद मजूरी को खोकर मेरे लिए लाती थी ! आज दूर हूँ तुझसे माँ, सफलता बैरन होती जाती है।  माँ तू बहुत याद आती है।  याद आते है वो जमाने।  ईंट फेंकते-फेंकते तेरे हाथो के छील जाने।  सीमेंट-मसाले मे तेरी अँगुलियाँ कट जाती है।  याद करके उस छवि को हाय छाती फट जाती है।  शाम को साग बनाते उन अंगुलियों में मिर्च चली जाती है।  माँ तू बहुत याद आती  है।  आँख में तिनका जाने पर, कैसे तू फूँक लगाती थी।  कैसे घबराती अंदर से, बार बार सहलाती थी।  वो तेरे आँचल की गर्माहट जिसमें छुप के मैं रोता था...

मैं अकेला कहाँ हूँ यारो

उन्होंने तो नजरें फेर ली ;अच्छा हुआ ये रम तो है । मैं अकेला कहाँ हूँ यारो ;मेरे साथ मेरा ग़म  तो है ।   चाँदनी में सजाए  थे जो सपने ;वो सपने मचल गए । उनकी राहों में बिछाया था ये दिल ;बेरहम हँसकर कुचल गए । दूर से देखा था वो किनारा ;वे थोडा आगे निकल गए । हम आये तो देखा साहिल को ;वे किनारे ही बदल गए । उनकी जुल्फों के घने बादल ;मेरी दुनिया में घिर आते हैं । हमें क्या पता था यारो ;ये बादल पानी नहीं बिजली गिराते हैं । हमें सूली पर चढ़ाया उन्होंने ;मोहब्बत पर हर दफ़ा क़यामत हुई । ख़ता ये थी कि शाही बगीचे के फूलों की महक; हमारे दिल से बरामद हुई । फूलों से कह दो की खिल उठें अब ;खुशियों का सवेरा हो गया । अब नहीं गूंजेगा गुंजार कोई ;चिरकाल को भँवरा सो गया । मुझे फ़क्र  है ये ज़ालिम तुझ पर ;तुम्हे मोहब्बत को कुचलने का दम तो है । मैं  अकेला कहाँ हूँ यारो; मरे साथ मेरा गम तो है ।

बेटे का बदलता रंग

निष्ठूर जवानी ममता पर; जब हावी होती जाती है । तब लगता प्यारी सी मैया ; बूढी होती जाती है । लगता है वो दिन बिसर गए ;जब पालना छोटा होता था । निकल जान सी माँ की जातीं ;जब जब ललना रोता था । जिस उंगली को पकड़ सहारे से ;ललने का चलना होता था । आज वो ऊँगली  काँप रही ; उसे नहीं आधार सपोता का । जिसे खिला कर माँ  खुश होती ;जिसके दुःख पर भूकी सोती । उ स जालिम के चूल्हे क्यों ; ना सिक पाती अब माँ को रोटी। जिस के लालन पालन में; माँ ने अपनी जी-जान लगाईं । उस जान को भारी लगती है क्यों ; दो रोटी की अब भरपाई । अपशब्द निकलते उस माँ को जो ;हर वक्त दुआएं देती है । लाल की इतना लाल हुआ अब ; ममता डाँणे  में सोती है । जिस आँगन में मैया का आँचल ;पुत्र-दुलार को फैला था । वो आँगन  करुणा में रोता देख 'नियति ' यह चित्रकथा । क्या हुआ कि भारतवर्ष को मैया ;माओं का हाल बिहाल हुआ । ससुराल से  मोह लगा तो फिर ; क्यों आज दूर ननिहाल हुआ । "जिस जान  से जान मिली हमको ;क्यों जान उसे अनजान किया । आज जो ' जान ' मिली हमको ;उस  'जान'  को जान का दान दि...