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Showing posts from November, 2016

सीता की याद: भाग २ (क्रोध)

सके जान न राम अचानक,                       खेद क्रोध में बदल गया। भीषणता धधकी-भभकी,                 धर रौद्र काल ज्यों जल गया। खिंचने लगी भृगुटि राम की,                         रक्त उबाल लगा भरने। भुजगेश बने, फुंफकार भरी,                    जग त्राहि-त्राहि लगा करने। दिनकर का जैसे रथ टूटा,                   इक क्षण भर की ही देरी में। ज्वालामुखी उद्विग्न हो उठे,                     हुई रात प्रलय की भेरी में। खौल रहे नदियाँ-निर्झर,                अब डोल रहा अंचल-अंचल। पृथ्वी से नभ, नभ से भू तक,                 बेचैन निरंतर दौड़ रहा जल। पवन जगाता अलख नज़ारे,     ...

वर्णन

ਆਖਹਿ ਵੇਦ ਪਾਠ ਪੁਰਾਣ ॥  ਆਖਹਿ ਪੜੇ ਕਰਹਿ ਵਿਖਆਣ ॥ ਆਖਹਿ ਬਰਮੇ ਆਖਹਿ ਇੰਦ ॥  ਆਖਹਿ ਗੋਪੀ ਤੈ ਗੋਵਿੰਦ ॥ ਆਖਹਿ ਈਸਰ ਆਖਹਿ ਸਿੱਧ ॥  ਆਖਹਿ ਕੇਤੇ ਕੀਤੇ ਬੁਧ ॥ ਆਖਹਿ ਦਾਨਵ ਆਖਿਹ ਦੇਵ ॥  ਆਖਹਿ ਸੁਰਿ ਨਰ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵ ॥ ਕੇਤੇ ਆਖਹਿ ਆਖਿਣ ਪਾਹਿ ॥  ਕੇਤੇ ਕਹਿ ਕਹਿ ਉਠਿ ਉਠਿ ਜਾਹਿ ॥ ਏਤੇ ਕੀਤੇ ਹੋਰ ਕਰੇਹਿ ॥  ਤਾ ਆਖ ਨ ਸਕਹਿ ਕੇਈ ਕੇਇ ॥ ਜੇ ਕੋ ਆਖੈ ਬੋਲੁਵਿਗਾੜੁ ॥   ਤਾ ਲਿਖੀਐ ਸਿਰਿ ਗਾਵਾਰਾ ਗਾਵਾਰੁ॥ वरने वेद कहें पुराना। वरने सुविज्ञ करें वखाना। वरने ब्रह्मा वरने इन्द्र। वरने गोपी और गोविन्द। वरने शंकर वरने सिद्ध। वर्णत कितने आये बुद्ध। वरने दानव वरने देव। वरने सुर-नर-मुनि-जन-सेव। कितने वर्णत कह न पावै। कितने कह-कह उठ-उठ जावै। जितने जन्मे, और अगर आ जायेंगे। जो है वो कह नहीं पाएंगे। वर्णन का जो दावा करते। प्रकट मूढ़ता अपनी करते। वरने = वर्णन करें, सेव = सेवा करने वाले  -श्री गुरुग्रंथ साहिब, २६ #गुरुनानक_जयंती 

सीता की याद: भाग १ (धिक्कार)

 मित्रो, 'सीता की याद' नाम से एक एक काव्य-श्रृंखला का आरम्भ कर रहा हूँ जिसकी पहली क़िस्त आपको समर्पित है। इस पूरी शृंखला की कविताएँ सीता के धरती में समां जाने के बाद राम की मनः स्थिति को अंकित करने का एक प्रयास है। कथावस्तु वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के 98वें  एवं 99वें दो सर्गों से ली गई है। अगली क़िस्त कब आएगी मुझे भी नहीं पता। ( :P ) कविताओं का आनंद लें और कृपया सुझाव देते रहें ताकि उत्तरोत्तर किस्तें उन्नत हो सकें। धन्यवाद जिसने पति के चरणों में,                सर्वस्व निछावर कर डाला। जिसने महलों की सेज छोड़,                वन के कांटो में बिस्तर डाला। जिसने झूठी अफ़वाहों के,                     बोझ तले सब गवा दिया। जिसने तप की घोर अग्नि में.                    रोम-रोम निज जला दिया। जिसने सोने की लंका को,              ...

समझ नहीं आ रहा कौन-सी वाली डिसाइड करूँ

1 जनवरी और 1 जुलाई ऐसा दिन है जब ढेरों भारतियों का जन्मदिन होता है। क्यों होता है? ये अब किसी से छिपा नही हैं। मास्साब (teacher) की इस कृपा का एक पात्र मैं भी हूँ। हमें अपने जन्मदिन का पता ही अपनी पाँचवी की मार्कशीट से चलता है। हालाँकि जन्मदिन मनाने  के चक्कर में मैं ज्यादा पड़ा नहीं। मुझे दो या तीन बार का ही ऐसा कुछ याद है जब जन्मदिन मनाने जैसा कुछ किया गया। एक बार छठवीं कक्षा में चॉकलेट वितरण, एक बार तीन चार दोस्तों के साथ मिलकर शुद्ध जैन केक भंजन (केक एक मित्र ने उसके घर से मंगाया था, कक्षा नौवीं की बात) और तीसरी बार 2014 में जब घर पे था तो बहन द्वारा लाई गई जलेबियों का रसास्वादन। (उसे तो पता ही तब चला था जब मेरे मोबाइल पे उसने 1 जनवरी को कई दोस्तों के हैप्पी बर्थडे मैसेज देखे, और चट से ले आई जलेबियाँ). इन घटनाओं के आलावा मैंने कभी जन्मदिन नहीं मनाया। पिछली बार 2015 की दिवाली में सफ़ाई करते हुए मेरे भाई को पिताजी की पुरानी पॉकेट डायरी मिली जिसमें उन्होंने मेरी जन्म की दिनांक और समय नोट कर रखा था। पिताजी ने इस डायरी का जिक्र कई बार किया परंतु कभी इसके दर्शन न हुए थे। और उनको...

कल जिसे मैं खुद के साथ बिताया जाने वाला समय कहता आज था वो वैसा नही रहा

खुद के साथ बैठे काफी दिन हो गए। याद आता है- खेत की मेढ़, ढलता सूरज, चिड़ियों के झुण्ड, ढोर-डंगरों के चलने से मौसम में धुंध फैलाती धूल और घर की ओर ठेलता तेजी से पसरता हुआ अन्धकार। सिर पे टोकरी रखे दो तीन बकरियों को साथ लिए खेत से घर लौटती औरतें, बच्चे जिनके इर्द-गिर्द चिल्ल-पों मचाते बकरियों को तंग करते जैसे मजाक उड़ा रहे हों साँझ के गंभीर सन्नाटे का। ये वो समय होता था जब मैं खुद के साथ बैठा होता था। मन में न जाने कितने सवाल, कितनी दार्शनिक गुत्थियाँ किलोलें करती। सूरज भी साँझ के समय उताल में रहता है जैसे घर पास आ जाने पर छोटे-छोटे बच्चे उत्साह से दौड़कर किवाड़ भड़भड़ाते हुए दन्न से अंदर घुस जाते हैं। सूरज के छिपते ही कुछ मिनट का जो मरा मरा सा उजाला रहता है न। बस यही है वो वक़्त जब अंतर में छिपा दार्शनिक बाहर आने लगता है। इस गंभीरता में एक आनंद-सा आता है। मन जैसे धीरे-धीरे डूब रहा हो। जल से सांसो के द्वार जैसे बंद हो रहे हों। हर ओर से गति जैसे शांत हो कर विलीन हो रही हो। इस डूबने में तड़प नही उठती, न ही हैरान करती है उबरने की छटपटाहट। बस एक सनसनाता हुआ-सा संगीत...

जवाहर नवोदय विद्यालय - टेढ़ी दृष्टि

जवाहर नवोदय विद्यालय (JNV) मेरे जैसे कई लोगो के लिए एक ऐसा नाम है जिसने उन्हें आकार दिया। तराश-तराश कर बड़ी सिद्धत से खाका खिंचा और उस पर नक्काशी की और कुम्हार-गड़ा की मिट्टी राख के साथ तपकर सबसे महेंगे बिकने वाले घड़ों में शोभायमान हुई। धूल-धंखड़ से तलाश के कुछ कणों को माणिक्यों जवाहरातों का रूप देने वाली संस्था नवोदय ही है। माटी से निर्मित नवोदय की इन कलाकृतियों में आप ताउम्र माटी की गंध पाएंगे - यही है इस कारीगर की उतकृष्ट कला। इस तरह ह्रदय सुरम्य सुधियों में विलीन होता जाता है और महिमा-मंडन की अंतहीन सुरमाला हम नवोदयोत्पादों को लपेटती जाती है, लपेटती जाती है। मैं इस क्षेत्र में किसी भी बिंदु पर थकता नहीं। इसी बीच दब जाती हैं कुछ महत्वपूर्ण परंतु कड़वी सुधियाँ जिन्हें हम बाद में भी कभी नही देख पाते और अपने अनुजों के नेत्रों पर भी काली पट्टी जड़ देने के अनवरत प्रयास करते हैं। १) पता नही क्यों, परंतु कुछ कुलीन अध्यापक/अध्यापिकाएँ नवोदय में पढ़ने वाले बच्चों को उनकी समाज के बच्चों के बराबर का दर्ज़ा नही दे पाते। कितने भी प्रतिभाशाली बच्चे हों, वो रहेंगे गवार और उपेक्षा के पात्र ही। २) ब...