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Showing posts from June, 2016

वक्त है जय घोष का

जब द्वंद के बिच्छू तुझे डसने लगे၊ जब तर्क तेरे भाव पर हंसने लगे। दिए की आग सा जलना पड़ेगा, कुटी को जब तिमिर छलने लगे। फागुन को विदा कहना ही होगा, कोई कली जादू अगर करने लगे। उषा की बांग तब देनी पड़ेगी, क्षितिज में सूर्य जब ढलने लगे। समझ ले वक्त है जय घोष का, मशाल-ए-जंग जब जलने लगे। - परमानंद

याद वो गीत आते हैं

हटते ह्रदय को फिर फिर लुभाना सीख जाते हैं। जिनसे आँख बचाता हूँ, दृश्य वो दीख जाते हैं। आँगन में रखा जो वक्त का धूमिल-सा तख्ता, ज़रा से रंग के छींटे नज़र इसमें भी आते हैं। दिशा से मुक्त हो पतवार ले खेता थका सा, हवा के मस्त झोंके फिर वहीं पे खींच लाते हैं। तेरी ढिठाई से भी कितने ढीठ हैं 'परमा' नहीं हैं गुनगुनाने जो, याद वो गीत आते हैं। 

कुछ लिखना जरूरी है

आज कुछ लिखना जरूरी है तपन में सिकना जरूरी है၊ दीदार का उतना महत है तेरा होना जितना जरूरी है। पलक के बांध से रोका हुआ जो  वह पानी रिसना जरूरी है၊ प्रेम होना ही नहीं पर्याप्त बाबू प्रेम का दिखना जरूरी है၊ आज इस बाजार में परमा बस तेरा बिकना जरूरी है၊

प्रेम का असली रूप विरह है

काग तेरी बोली में कैसी लय है। लगता है किसी का आज आना तय है। आग का तो जीवन धर्म जलना क्रूर जल की शीत आभा एक भय है। दिसि-ज्ञान बिन क्षितिज का लाल सूरज कौन जाने अस्त होता या उदय है। मिलन तो छल है रे विधाता का प्रेम का असली रूप विरह है। मजे हैं आँख के तपने में 'परमा' दीदार हो जाना ही तो क्षय है।                                           -परमानन्द 

सूरज से व्योम निकला

जो था पराया, वो अपना कौम निकला। शामक था जो, वो आखिर होम निकला। समझा था पत्थर जिसे अब तक, वो यूँ पिघला, कि मोम निकला। मद होगा सुरा सा ये सुना था, इस सुराही में तो मादक सोम निकला। व्योम से उगा करता था सूरज, आज सूरज से ज़रा सा व्योम निकला।