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Showing posts from July, 2016

पन्ने पुराने हो गए

पीले पड़ गए पन्ने, ज़रा पुराने हो गए। महज अल्फ़ाज़ थे अब तराने हो गए। जरा मंथर हो गया है वक्त का कटना, मिलन के सिलसिले याद आने हो गए। चमक आती नहीं उतनी इन आंखों में, नूर छटा अब, तुझे देखे जमाने हो गए। तीर से जो चीरते, विंधते इस ह्रदय में, नयन के वे निशाने बे-निशाने हो गए। सुरूपे! ढूंढता अब भी खयालों में तुझे, पुरानी बात वो दिल के लगाने हो गए। 

मैं भूल गया

मैं भूल गया जीवन के सुंदर, और रंगीन नज़ारो मे। मैं भूल गया, मैं भटक गया, कलिओं की मस्त बहारो मे। प्यार दुलार की नौटंकी, अब भी छलती भरमाती है, जीना मुश्किल है दूर यहाँ, सुधियों के कारागारों में। मरता, मरकर भी खैर नहीं, ये यूँ ही पूजा जाता है, सोता है ऐसे प्रेम यहाँ, ज्यों सोता पीर मज़ारों में। तुम देखो वैसा ही पाओगे, जैसा मैं चिर से दिखता हूँ, पे होता पल पल परिवर्तित, ज्यों बदले रेत किनारों में।

छन्द : एक परिचय

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छंद क्या है ? छंद साँचा है, विशेष पैटर्न है, नियमों से नियोजित पद्य रचना है जिसकी पहचान मात्राओं व वर्णों की गिनती, उनका क्रम, लय आदि से की जाती है | उदहारण के लिए दोहा, चौपाई, सोरठा आदि छंद हैं | छंदों के कुछ उदहारण – अनुष्टुप् छंद           वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि |           मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ||  (रामचरितमानस १.१.१) चौपाई छंद           जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।           सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।           जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।           चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।। (रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड) दोहा          खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।          तन मेरो मन पीउ को दोउ भए एक रंग।। (अमीर खुसरो) कुण्डलिया ...

तैत्तिरीयोपनिषद

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कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद तैत्तिरीय आरण्यक का एक भाग है। इस आरण्यक के सातवें, आठवें और नौवें अध्यायों को ही उपनिषद की मान्यता प्राप्त हैं इस उपनिषद के रचयिता तैत्तिरि ऋषि थे। इसमें तीन वल्लियां- ‘शिक्षावल्ली,’ ‘ब्रह्मानन्दवल्ली’ और ‘भृगुवल्ली’ हैं। इन तीन वल्लियों को क्रमश: बारह, नौ तथ दस अनुवाकों में विभाजित किया गया है। जो साधक ‘ज्ञान,’ ‘कर्म’ और उपासना’ के द्वारा इस भवसागर से पार उतर कर मोक्ष की प्राप्ति करता है अथवा योगिक-साधना के द्वारा ‘ब्रह्म’ के तीन ‘वैश्वानर’, ‘तेजस’ और ‘प्रज्ञान’ स्वरूपों को जान पाता है और सच्चिदानन्द स्वरूप में अवगाहन करता है, वही ‘तित्तिरि’ है। वही मोक्ष का अधिकारी है। शांति-पाठ ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः . शं नो भवत्यर्मा . शं न इन्द्रो बृहस्पतिः . शं नो विष्णुरुरुक्रमः . नमो ब्रह्मणे . नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्मासि . त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि . ऋतं वदिष्यामि . सत्यं वदिष्यामि . तन्मामवतु . तद्वक्तारमवतु . अवतु माम् . अवतु वक्तारम् . ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः . मित्र – दिन और प्राण के अधिष्ठाता वरुण- रात्रि और अपान के अध...

मम्मा तुम न समझौ

कैसी लबरी शान, मम्मा तुम न समझौ। जनता दे रइ प्रान, मम्मा तुम न समझौ। चौरे चकरे गोला डर गए नइयाँ गाड़ी-वान, मम्मा तुम न समझौ। सूका परौ बितर दये पइसा कक्कू खा गए पान, मम्मा तुम न समझौ। डेओडी-डेओडी पानी मांगत औंदे डरे किसान, मम्मा तुम न समझौ। आरच्छन की न्याव मचा लई दूषित छुओ पिसान, मम्मा तुम न समझौ।

माँगा था घना कोहरा

ह्रदय इक टीस सी उठती रही।  सुधि की रेख भी मिटती रही।  वक्त से माँगा था घना कोहरा, पौ फटी और धुंधी छटती रही।  भरम से पोतना चाहा जो दर्पण, शक्ल उसमे वही दिखती रही।  बिना समझे शुतुरमुर्गा बना मैं, गर्दन रेत में ही सदा धंसती रही।  चलाई छुरी, कि कटे तेरा जादू, पे साँसे ही मेरी कटती रही।